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एन्द्र॑ सान॒सिं र॒यिं स॒जित्वा॑नं सदा॒सह॑म्। वर्षि॑ष्ठमू॒तये॑ भर॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

endra sānasiṁ rayiṁ sajitvānaṁ sadāsaham | varṣiṣṭham ūtaye bhara ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। इ॒न्द्र॒। सा॒न॒सिम्। र॒यिम्। स॒ऽजित्वा॑नम्। स॒दा॒ऽसह॑म्। वर्षि॑ष्ठम्। ऊ॒तये॑। भ॒र॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:8» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अष्टमसूक्त के प्रथम मन्त्र में यह उपदेश है कि ईश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थ से कैसा धन प्राप्त करना चाहिये-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारी (ऊतये) रक्षा पुष्टि और सब सुखों की प्राप्ति के लिये (वर्षिष्ठम्) जो अच्छी प्रकार वृद्धि करनेवाला (सानसिम्) निरन्तर सेवने के योग्य (सदासहम्) दुष्ट शत्रु तथा हानि वा दुःखों के सहने का मुख्य हेतु (सजित्वानम्) और तुल्य शत्रुओं का जितानेवाला (रयिम्) धन है, उस को (आभर) अच्छी प्रकार दीजिये॥१॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को सर्वशक्तिमान् अन्तर्यामी ईश्वर का आश्रय लेकर अपने पूर्ण पुरुषार्थ के साथ चक्रवर्त्ति राज्य के आनन्द को बढ़ानेवाली विद्या की उन्नति सुवर्ण आदि धन और सेना आदि बल सब प्रकार से रखना चाहिये, जिससे अपने आप को और सब प्राणियों को सुख हो॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्र कीदृशं धनमीश्वरानुग्रहेण स्वपुरुषार्थेन च प्रापणीयमित्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे इन्द्र ! कृपयाऽस्मदूतये वर्षिष्ठं सानसिं सदासहं सजित्वानं रयिमाभर॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (इन्द्र) परमधनप्रदेश्वर ! (सानसिम्) सम्भजनीयम्। सानसिवर्णसि० (उणा०४.१०७) अनेनायं ‘सन’ धातोरसिप्रत्ययान्तो निपातितः। (रयिम्) धनम् (सजित्वानम्) समानानां शत्रूणां विजयकारकम्। अत्र अन्येभ्योऽपि दृश्यते। (अष्टा०३.२.७५) अनेन ‘जि’ धातोः क्वनिप्प्रत्ययः। (सदासहम्) सर्वदा दुष्टानां शत्रूणां हानिकारकदुःखानां च सहनहेतुम् (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धं वृद्धिकारकम्। अत्र वृद्धशब्दादिष्ठन् वर्षिरादेशश्च। (ऊतये) रक्षणाद्याय पुष्टये (भर) धारय॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वशक्तिमन्तमन्तर्यामिनमीश्वरमाश्रित्य परमपुरुषार्थेन च सर्वोपकाराय चक्रवर्त्तिराज्यानन्दकारकं विद्याबलं सर्वोत्कृष्टं सुवर्णसेनादिकं बलं च सर्वथा सम्पादनीयम्। यतः स्वस्य सर्वेषां च सुखं स्यादिति॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

याप्रमाणे जी माणसे ईश्वराची उपासना व वेदोक्त कर्म करणारी आहेत, ती ईश्वराची आश्रित बनून वेदविद्येने आत्म्याचे सुख व उत्तम क्रिया करून शारीरिक सुख प्राप्त करतात. त्यांनी परमेश्वराचीच प्रशंसा करावी, या अभिप्रायाने या आठव्या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वोक्त सातव्या सूत्राच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी सर्वशक्तिमान, अंतर्यामी ईश्वराचा आश्रय घेऊन आपल्या पूर्ण पुरुषार्थाने सर्वांवर उपकार करण्यासाठी, चक्रवर्ती आनंददायक राज्य होण्यासाठी, विद्यावृद्धी, सुवर्ण इत्यादी धन व सेना इत्यादी बल बाळगले पाहिजे. ज्यामुळे स्वतःला व सर्व प्राण्यांना सुख मिळेल. ॥ १ ॥