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क॒था दा॑शेमा॒ग्नये॒ कास्मै॑ दे॒वजु॑ष्टोच्यते भा॒मिने॒ गीः। यो मर्त्ये॑ष्व॒मृत॑ ऋ॒तावा॒ होता॒ यजि॑ष्ठ॒ इत्कृ॒णोति॑ दे॒वान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kathā dāśemāgnaye kāsmai devajuṣṭocyate bhāmine gīḥ | yo martyeṣv amṛta ṛtāvā hotā yajiṣṭha it kṛṇoti devān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क॒था। दा॒शे॒म॒। अ॒ग्नये॑। का। अ॒स्मै॒। दे॒वऽजु॑ष्टा। उ॒च्य॒ते॒। भा॒मिने॑। गीः। यः। मर्त्ये॑षु। अ॒मृतः॑। ऋ॒तऽवा॑। होता॑। यजि॑ष्ठः। इत्। कृ॒णोति॑। दे॒वान् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:77» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:25» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सतहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् कैसा हो, यह विषय कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग विद्वानों के साथ होते हैं, वैसे (यः) जो (मर्त्येषु) मरणधर्म्मयुक्त शरीरादि में (अमृतः) मृत्युरहित (ऋतावा) सत्य गुण, कर्म, स्वभावयुक्त (होता) दाता और ग्रहण करनेहारा (यजिष्ठः) अत्यन्त सत्संगी (देवान्) दिव्यगुण वा दिव्यपदार्थों वा विद्वानों को (कृणोति) करता है (अस्मै) इस उपदेशक (भामिने) दुष्टों पर क्रोधकारक (अग्नये) सत्यासत्य जनानेहारे के लिये (का) कौन (कथा) किस हेतु से (देवजुष्टा) विद्वानों ने सेवी हुई (गीः) वाणी (उच्यते) कही है, उस (इत्) ही को (दाशेम) विद्या देवें, वैसे तुम भी किया करो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् ईश्वर की स्तुति और विद्वानों को सेवन करके दिव्य गुणों को प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त होता है, वैसे ही हम लोगों को सेवन करना चाहिये ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा वयं विद्वद्भिर्यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा होता यजिष्ठो देवान् कृणोत्यस्मै भामिनेऽग्नये का कथा देवजुष्टा गीरुच्यते तस्मा इदेव दाशेम तथा यूयमपि कुरुत ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कथा) केन प्रकारेण (दाशेम) दद्याम (अग्नये) विज्ञापकाय (का) वक्ष्यमाणा (अस्मै) उपदेशकाय (देवजुष्टा) विद्वद्भिः प्रीता सेविता वा (उच्यते) कथ्यते (भामिने) प्रशस्तो भामः क्रोधो विद्यते यस्य तस्मै (गीः) वाक् (यः) जीवः (मर्त्येषु) नश्यमानेषु पदार्थेषु (अमृतः) मृत्युरहितः (ऋतावा) ऋताः प्रशस्ताः सत्या गुणा विद्यन्ते यस्मिन् सः (होता) ग्रहीता दाता (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा सङ्गमिता (इत्) एव (कृणोति) करोति (देवान्) दिव्यगुणान् पदार्थान् विदुषो वा ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वानीश्वरस्य स्तुतिं विद्वत्सेवनं च कृत्वा दिव्यान् गुणान् प्राप्य सुखानि प्राप्नोति, तथैवाऽस्माभिरपि कर्त्तव्यम् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात ईश्वर, विद्वान व अग्नीच्या गुणाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा विद्वान ईश्वराची स्तुती व विद्वानांचे सेवन करून दिव्य गुणांना प्राप्त करून सुख मिळवितो तसेच आम्ही ही वागले पाहिजे. ॥ १ ॥