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उ॒त द्यु॒मत्सु॒वीर्यं॑ बृ॒हद॑ग्ने विवाससि। दे॒वेभ्यो॑ देव दा॒शुषे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta dyumat suvīryam bṛhad agne vivāsasi | devebhyo deva dāśuṣe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। द्यु॒ऽमत्। सु॒ऽवीर्य॑म्। बृ॒हत्। अ॒ग्ने॒। वि॒वा॒स॒सि॒। दे॒वेभ्यः॑। दे॒व॒। दा॒शुषे॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:74» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) दिव्य गुण, कर्म्म और स्वभाववाला (अग्ने) अग्निवत् प्रज्ञा से प्रकाशित विद्वान् ! तू (दाशुषे) देने के स्वभाववाले कार्य्यों के अध्यक्ष (उत) अथवा (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (द्युमत्) अच्छे प्रकाशवाले (बृहत्) बड़े (सुवीर्य्यम्) अच्छे पराक्रम को (विवासति) सेवन करता है, वैसे हम भी उसका सेवन करें ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - जो कार्यों के स्वामी होवें, उन विद्वानों के सकाश से विद्या और पुरुषार्थ करके विद्वान् तथा भृत्यों को बड़े-बड़े उपकारों का ग्रहण करना चाहिये ॥ ९ ॥ इस सूक्त में ईश्वर विद्वान् और विद्युत् अग्नि के गुणों का वर्णन होने से पूर्वसूक्तार्थ के साथ इस सूक्त की सङ्गति है ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे देवाऽग्ने विद्वन् ! यथा त्वं दाशुष उत देवेभ्यो द्युमद् बृहत्सु वीर्य्यं विवाससि, तथा तं वयं सदा सेवेमहि ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (द्युमत्) प्रशस्तप्रकाशवत् (सुवीर्य्यम्) सुष्ठु पराक्रमम् (बृहत्) महान्तम् (अग्ने) विद्युदादिस्वरूपवद्वर्त्तमान (विवाससि) परिचरसि (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (देवः) दिव्यगुणकर्म्मस्वभावयुक्त (दाशुषे) दानशीलाय कार्य्याधिपतये ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - कार्य्यस्वामिनां विद्वद्भिर्भृत्यैश्च विद्यापुरुषार्थाभ्यां विदुषां सकाशान्महान्त उपकाराः संग्राह्याः ॥ ९ ॥ अत्रेश्वरविद्वद्विद्युदग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - कार्याधिपतीनी विद्वानांच्या साह्याने विद्या व पुरुषार्थ करून विद्वानांवर व सेवकांवर महान उपकार करावेत. ॥ ९ ॥