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अर्व॑द्भिरग्ने॒ अर्व॑तो॒ नृभि॒र्नॄन् वी॒रैर्वी॒रान्व॑नुयामा॒ त्वोताः॑। ई॒शा॒नासः॑ पितृवि॒त्तस्य॑ रा॒यो वि सू॒रयः॑ श॒तहि॑मा नो अश्युः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arvadbhir agne arvato nṛbhir nṝn vīrair vīrān vanuyāmā tvotāḥ | īśānāsaḥ pitṛvittasya rāyo vi sūrayaḥ śatahimā no aśyuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अर्व॑त्ऽभिः। अ॒ग्ने॒। अर्व॑तः। नृभिः॑। नॄन्। वी॒रैः। वी॒रान्। व॒नु॒या॒म॒। त्वाऽऊ॑ताः। ई॒शा॒नासः॑। पि॒तृ॒ऽवि॒त्तस्य॑। रा॒यः। वि। सू॒रयः॑। श॒तऽहि॑माः। नः॒। अ॒श्युः॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:73» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे मनुष्य कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) सब सुखों के प्राप्त करानेवाले परमेश्वर ! आपसे (त्वोताः) रक्षित हम लोग (अर्वद्भिः) प्रशंसा योग्य घोड़ों से (अर्वतः) घोड़ों को (नृभिः) विद्यादि श्रेष्ठ गुणयुक्त मनुष्यों से (नॄन्) शिक्षा धर्म्मवाले मनुष्यों और (वीरैः) शौर्यादियुक्त शूरवीरों से (वीरान्) शूरता आदि गुणवाले शूरवीरों की प्राप्ति (वनुयाम) होने को चाहें और याचना करें। आपकी कृपा से (पितृवित्तस्य) पिता के भोगे हुए (रायः) धन के (ईशानासः) समर्थ स्वामी हम हों और (सूरयः) मेधावी विद्वान् (नः) हम लोगों को (शतहिमाः) सौ हेमन्त ऋतु पर्यन्त (व्यश्युः) प्राप्त होते रहें ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य लोग ईश्वर के गुण, कर्म्म, स्वभाव के अनुकूल वर्त्तने और अपने पुरुषार्थ के विना उत्तम विद्या और पदार्थों के प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकते, इससे इसका सदा अनुष्ठान करना उचित है ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे जगदीश्वर ! त्वोता वयमर्वद्भिरर्वतो नृभिर्नॄन् वीरैर्वीरान् वनुयाम। त्वत्कृपया पितृवित्तस्य राय ईशानासो भवेम सूरयो नोऽस्मान् शतहिमा व्यश्युः ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्वद्भिः) प्रशस्तैरश्वैः (अग्ने) सर्वसुखप्रापक (अर्वतः) अश्वान् (नृभिः) विद्यादिप्रशस्तगुणयुक्तैर्मनुष्यैः (नॄन्) विद्यासुशिक्षाधर्मयुक्तान् मनुष्यान् (वीरैः) शौर्य्यादियुक्तैः (वीरान्) शौर्यादिगुणयुक्तान् (वनुयाम) इच्छेम याचेम (त्वोताः) त्वया कृतरक्षाः (ईशानासः) समर्थाः स्वामिनः (पितृवित्तस्य) जनकभुक्तस्य (रायः) धनस्य (वि) विशेषे (सूरयः) विद्वांसः (शतहिमाः) शतं हिमानि यासु समासु ताः (नः) अस्मान् (अश्युः) प्राप्नुयुः ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - नहि मनुष्यैरीश्वरगुणकर्मस्वभावानुकूलाचरणेन विनोत्तमा विद्याः पदार्थाश्च प्राप्तुं शक्यास्तस्मादेतन्नित्यं प्रेम्णानुष्ठातव्यम् ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसे ईश्वराच्या गुण, कर्म, स्वभावाच्या अनुकूल वागल्याशिवाय व पुरुषार्थाशिवाय उत्तम विद्या व पदार्थ प्राप्त करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत, त्यामुळे त्याचे सदैव अनुष्ठान करावे. ॥ ९ ॥