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ए॒ता ते॑ अग्न उ॒चथा॑नि वेधो॒ जुष्टा॑नि सन्तु॒ मन॑से हृ॒दे च॑। श॒केम॑ रा॒यः सु॒धुरो॒ यमं॒ तेऽधि॒ श्रवो॑ दे॒वभ॑क्तं॒ दधा॑नाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etā te agna ucathāni vedho juṣṭāni santu manase hṛde ca | śakema rāyaḥ sudhuro yamaṁ te dhi śravo devabhaktaṁ dadhānāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒ता। ते॒। अ॒ग्ने॒। उ॒चथा॑नि। वे॒धः॒। जुष्टा॑नि। स॒न्तु॒। मन॑से। हृ॒दे। च॒। श॒केम॑। रा॒यः। सु॒ऽधुरः॑। यम॑म्। ते॒। अधि॑। श्रवः॑। दे॒वऽभ॑क्तम्। दधा॑नाः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:73» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसको उसके सहाय से क्या प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वेधः) सबके अन्तःकरण में रहने से सबको बुद्धिप्रद धर्त्ता (अग्ने) विज्ञान के देनेवाले जगदीश्वर (ते) आपकी कृपा से (एता) (उचथानि) वेदवचन हम लोगों के (मनसे) मन (च) और (हृदे) आत्मा के लिये (जुष्टानि) सेवन किये हुए प्रीतिकारक (सन्तु) होवें, वे (ते) आपके सम्बन्ध से (यमम्) नियम करने (देवभक्तम्) विद्वानों ने सेवन किये हुए (श्रवः) श्रवण को (दधानाः) धारण करते हुए (सुधुरः) उत्तम पदार्थों के धारण करनेवाले हम लोग (रायः) धनों के प्राप्त होने को (अधि शकेम) समर्थ हों ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि आप सब सुखों को प्राप्त होकर और सभी के लिये प्राप्त करावें ॥ १० ॥ इस सूक्त में ईश्वर, अग्नि, विद्वान् और सूर्य के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्वसूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी उचित है ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तं तत्सहायेन किं प्राप्यत इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे वेधोऽग्ने जगदीश्वर ! ते तव कृपयैतोचथान्यस्माकं मनसे हृदे च जुष्टानि सन्तु ते तव सम्बन्धेन यमं देवभक्तं श्रवो दधानाः सुधुरो वयं राया धनानि प्राप्तुमधि शकेम ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एता) एतानि (ते) तव (अग्ने) विज्ञानप्रद (उचथानि) वेदवचनानि (वेधः) प्रज्ञाप्रद (जुष्टानि) प्रीतानि सेवितानि (सन्तु) भवन्तु (मनसे) (हृदे) आत्मने (च) समुच्चये (शकेम) शक्नुयाम। अत्र व्यत्ययेन शप्। (रायः) धनानि (सुधुरः) शोभना धुरो धारणानि येषान्ते (यमम्) यच्छति येन तम् (ते) तव (अधि) उपरिभावे (श्रवः) सर्वविद्याश्रवणम् (देवभक्तम्) विद्वद्भिः सेवितम् (दधानाः) धरन्तः ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वाणि सुखानि प्राप्य सर्वेभ्यः प्रापयितव्यानि ॥ १० ॥ अत्रेश्वराग्निविद्वत्सूर्य्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी स्वतः सर्व सुख प्राप्त करून सर्वांना सुख प्राप्त करून द्यावे. ॥ १० ॥