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स्वा॒ध्यो॑ दि॒व आ स॒प्त य॒ह्वी रा॒यो दुरो॒ व्यृ॑त॒ज्ञा अ॑जानन्। वि॒दद्गव्यं॑ स॒रमा॑ दृ॒ळ्हमू॒र्वं येना॒ नु कं॒ मानु॑षी॒ भोज॑ते॒ विट् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svādhyo diva ā sapta yahvī rāyo duro vy ṛtajñā ajānan | vidad gavyaṁ saramā dṛḻham ūrvaṁ yenā nu kam mānuṣī bhojate viṭ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ऽआध्यः॑। दि॒वः। आ। स॒प्त। य॒ह्वीः। रा॒यः। दुरः॑। वि। ऋ॒त॒ऽज्ञाः। अ॒जा॒न॒न्। वि॒दत्। गव्य॑म्। स॒रमा॑। दृ॒ळ्हम्। ऊ॒र्वम्। येन॑। नु। क॒म्। मानु॑षी। भोज॑ते। विट् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:72» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे ब्रह्म के जाननेवाले विद्वान् कैसे होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे-जैसे (स्वाध्यः) सबके कल्याण को यथावत् विचारने (ऋतज्ञाः) सत्य के जाननेवाले (येन) जिस पुरुषार्थ से (यह्वीः) बड़ी (बड़ी) (सप्त) सात संख्यावाली (दिवः) सूर्य के तुल्य (पूर्वोक्त मन्त्र ६ में वर्णित) विद्या (रायः) अति उत्तम धनों के (दुरः) प्रवेश के स्थानों को (व्यजानन्) जानते तथा (सरमा) बोध के समान करनेवाली (मानुषी) मनुष्यों की (विट्) प्रजा (दृढम्) दृढ़ निश्चल (ऊर्वम्) दोषों का नाश (गव्यम्) पशु और इन्द्रियों के हितकारक सुख को (नु) शीघ्र (विदत्) प्राप्त होती है, वैसे इस कर्म का सदा सेवन करो ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को यह योग्य है कि जैसे विद्या को पढ़े, वैसी ही कपट-छल छो़ड़ कर सब मनुष्यों को पढ़ावें और उपदेश करें, जिससे मनुष्य लोग सब सुखों को प्राप्त हो ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते ब्रह्मविदो विद्वांसः कीदृशा भवन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं यथा स्वाध्य ऋतज्ञा विद्वांसो येन यह्वीः सप्त दिवो रायो दुरी व्यजानन् येन सरमा मानुषी विट् दृढमूर्वं गव्यं सुखं नु विदत्कं भोजते तथैव तत्कर्म सदा सेवध्वम् ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वाध्यः) ये सुष्ठु सम्यक् सर्वेषां कल्याणं ध्यायन्ति ते (दिवः) पूर्वोक्तविद्याः (आ) अभितः (सप्त) एतत्संख्याकान् (यह्वीः) महतीः (रायः) अनुत्तमानि धनानि (दुरः) दूर्वन्ति सर्वाणि दुःखानि यैस्तान् विद्याप्रवेशस्थान् द्वारान् (वि) विशेषार्थे (ऋतज्ञाः) सत्यविदः (अजानन्) जानन्ति (विदत्) लभते (गव्यम्) गोभ्यः पशुभ्य इन्द्रियेभ्यो वा हितम् (सरमा) या सरान् बोधान् मिमीते सा (दृढम्) (उर्वम्) दोषहिंसनम् (येन) पुरुषार्थेन (नु) शीघ्रम् (कम्) सुखम् (मानुषी) मानुषाणामियम् (भोजते) भुङ्क्ते। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप्। (विट्) प्रजाः ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यादृशीं विद्यां स्वयं प्राप्नुयात् तादृशीं सर्वेभ्यो नैष्कापट्येन सदा दद्युः यतो मनुष्याः सर्वाणि सुखानि लभेरन् ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी जशी विद्या शिकावी तसे छळ-कपटाचा त्याग करून सर्व माणसांना शिकवावे व उपदेश करावा. ज्यामुळे माणसांना सर्व सुख मिळावे. ॥ ८ ॥