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अ॒स्मे व॒त्सं परि॒ षन्तं॒ न वि॑न्दन्नि॒च्छन्तो॒ विश्वे॑ अ॒मृता॒ अमू॑राः। श्र॒म॒युवः॑ पद॒व्यो॑ धियं॒धास्त॒स्थुः प॒दे प॑र॒मे चार्व॒ग्नेः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asme vatsam pari ṣantaṁ na vindann icchanto viśve amṛtā amūrāḥ | śramayuvaḥ padavyo dhiyaṁdhās tasthuḥ pade parame cārv agneḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मे इति॑। व॒त्सम्। परि॑। सन्त॑म्। न। वि॒न्द॒न्। इ॒च्छन्तः॑। विश्वे॑। अ॒मृताः॑। अमू॑राः। श्र॒म॒ऽयुवः॑। प॒द॒व्यः॑। धि॒य॒म्ऽधाः। त॒स्थुः। प॒दे। प॒र॒मे। चारु॑। अ॒ग्नेः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:72» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:17» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

जो लोग इन उक्त वेदों को पढ़ते हैं, वे ही सदा आनन्द में रहते हैं और जो नहीं पढ़ते उनका परिश्रम व्यर्थ जाता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (विश्वे) सब (अमृताः) उत्पत्तिमृत्युरहित अनादि (अमूराः) मूढ़तादि दोषरहित (श्रमयुवः) श्रम से युक्त (पदव्यः) सुखों को प्राप्त (धियन्धाः) बुद्धि वा कर्म को धारण करनेवाले (इच्छन्तः) श्रद्धालु होकर मनुष्य (अस्मे) हम लोगों को (वत्सम्) पुत्रवत् सुखों में निवास करती हुई प्रसिद्ध चारों वेद से युक्त वाणी के (सन्तम्) वर्त्तमान को (परिविन्दन्) प्राप्त करते हैं, वे (अग्नेः) (चारु) श्रेष्ठ जैसे हो वैसे परमात्मा के (परमे) सबसे उत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य सुखरूपी मोक्ष पद में (तस्थुः) स्थित होते हैं और जो नहीं जानते, वे उस ब्रह्म पद को प्राप्त नहीं होते ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - सब जीव अनादि हैं, जो इनके बीच मनुष्यदेहधारी हैं, उनके प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! तुम सब लोग वेदों को पढ़-पढ़ा कर अज्ञान से ज्ञानवाले पुरुषार्थी होके सुख भोगो, क्योंकि वेदार्थज्ञान के विना कोई भी मनुष्य सब विद्याओं को प्राप्त नहीं हो सकता, इससे तुम लोगों को वेदविद्या की वृद्धि निरन्तर करनी उचित है ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

य एतान् स्वीकुर्वन्ति ते सदानन्दा भवन्ति, ये च नाधीयते वृथाश्रमा भवन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

ये विश्वे अमृता अमूराः श्रमयुवः पदव्यो धियंधा मोक्षमिच्छन्तो मनुष्या अस्मे वत्सं सन्तं वेदचतुष्टयं परि विन्दँस्तेऽग्नेश्चारु परमे पदे तस्थुर्ये च न विदुस्ते तद्ब्रह्म पदं नाप्नुवन्ति ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मे) अस्मान् (वत्सम्) सुखेषु निवासयन्तं व्यक्तवाचं प्रसिद्धं वेदचतुष्टयम्। अत्र वॄतॄ०। (उणा०३.६१) इति सूत्रेणास्य सिद्धिः। (परि) सर्वतः (सन्तम्) वर्त्तमानम् (न) निषेधे (विन्दन्) लभन्ते (इच्छन्तः) श्रद्धालवो भूत्वा (विश्वे) सर्वे जीवाः (अमृताः) अनुत्पन्नत्वादनादित्वान्मरणधर्मरहिताः प्राप्तमोक्षाश्च (अमूराः) मूढभावरहिताः (श्रमयुवः) श्रमेण युक्ताः। अत्र क्विब्वचिप्रच्छि०। (उणा०२.५४) इति क्विब्दीर्घौ भवतः। (पदव्यः) सुखं प्राप्ताः (धियन्धाः) बुद्धिं कर्म वा दधति (तस्थुः) तिष्ठन्ति। (पदे) प्राप्तव्ये (परमे) सर्वोत्कृष्टे (चारु) श्रैष्ठ्यं यथा स्यात्तथा (अग्नेः) परमेश्वरस्य ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - सर्वे जीवा अनादयः सन्त्येतेषां मध्ये ये मनुष्या देहधारिणः सन्ति, तान् प्रतीश्वर उपदिशति। हे मनुष्याः ! सर्वे यूयं वेदानधीत्याध्याप्याज्ञानविरहा ज्ञानवन्तः पुरुषार्थिनो भूत्वा सुखिनो भवत, न हि वेदार्थज्ञानेन विना कश्चिदपि मनुष्यः सर्वविद्याः प्राप्तुं शक्नोति, तस्माद् वेदविद्यावृद्धिं सम्यक् कुरुत ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व जीव अनादी आहेत. त्यात जे मनुष्य देहधारी आहेत त्यांना ईश्वर उपदेश करतो की हे माणसांनो ! तुम्ही सर्व वेद शिकून, शिकवून, अज्ञान दूर करून ज्ञानवान पुरुषार्थी बनून सुख भोगा. कारण वेदार्थ ज्ञानाखेरीज कोणताही माणूस सर्व विद्या प्राप्त करू शकत नाही. त्यासाठी वेदविद्येची निरंतर वृद्धी केली पाहिजे. ॥ २ ॥