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अधि॒ श्रियं॒ नि द॑धु॒श्चारु॑मस्मिन्दि॒वो यद॒क्षी अ॒मृता॒ अकृ॑ण्वन्। अध॑ क्षरन्ति॒ सिन्ध॑वो॒ न सृ॒ष्टाः प्र नीची॑रग्ने॒ अरु॑षीरजानन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhi śriyaṁ ni dadhuś cārum asmin divo yad akṣī amṛtā akṛṇvan | adha kṣaranti sindhavo na sṛṣṭāḥ pra nīcīr agne aruṣīr ajānan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अधि॑। श्रिय॑म्। नि। द॒धुः॒। चारु॑म्। अ॒स्मि॒न्। दि॒वः। यत्। अ॒क्षी इति॑। अ॒मृताः॑। अकृ॑ण्वन्। अध॑। क्ष॒र॒न्ति॒। सिन्ध॑वः। न। सृ॒ष्टाः। प्र। नीचीः॑। अ॒ग्ने॒। अरु॑षीः। अ॒जा॒न॒न् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:72» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे विद्वान् किसको धारण करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (यत्) जो (अमृताः) मरण-जन्म रहित मोक्ष को प्राप्त हुए विद्वान् लोग (अस्मिन्) इस लोक में (श्रियम्) विद्या तथा राज्य के ऐश्वर्य की शोभा को (अधि निदधुः) अधिक धारण (चारुम्) श्रेष्ठ व्यवहार (दिव्यः) प्रकाश और विज्ञान से (अक्षी) बाहर भीतर से देखने की विद्याओं को (अकृण्वन्) सिद्ध करते (सृष्टाः) उत्पन्न की हुई (सिन्धवः) नदियों के (न) समान (अध) अनन्तर सुखों को (क्षरन्ति) देते हैं (नीचीः) निरन्तर सेवन करने तथा (अरुषीः) प्रभात के समान सब सुख प्राप्त करनेवाली विद्या और क्रिया को (प्र अजानन्) अच्छा जानते हैं, वैसे हे (अग्ने) विद्वान् मनुष्य ! तू भी यथाशक्ति सब कामों को सिद्ध कर ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! तुम लोग यथायोग्य विद्वानों के आचरण को स्वीकार करो और अविद्वानों का नहीं। तथा जैसे नदी सुखों के होने की हेतु होती है, वैसे सबके लिये सुखों को उत्पन्न करो ॥ १० ॥ इस सूक्त में ईश्वर और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते किं धरन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! यथा यद्येऽमृता विद्वांसोऽस्मिन् श्रियमधि निदधुश्चारुं दिवोऽक्षी अकृण्वन् सृष्टाः सिन्धवो नाध सुखानि क्षरन्ति नीचीररुषीः प्राजानन् तथात्वमप्येतान्निधेहि कुरु देहि प्रजानीहि ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अधि) अधिकार्थे (श्रियम्) विद्याराज्यैश्वर्यशोभाम् (नि) नितराम् (दधु) धरन्ति (चारुम्) श्रेष्ठं व्यवहारम् (अस्मिन्) लोके (दिवः) विज्ञानात्सूर्य्यप्रकाशाद्वा (यत्) ये (अक्षी) अश्नुवते व्याप्नुवन्ति याभ्यां बाह्याभ्यन्तरविद्यायुक्ताभ्यान्ते (अमृताः) मरणधर्मरहिताः प्राप्तमोक्षा वा (अकृण्वन्) कुर्वन्ति (अध) अनन्तरम्। अथेत्यस्यार्थे शब्दारम्भेऽधेत्यव्ययम्। (क्षरन्ति) संवर्षन्ति (सिन्धवः) नद्यः (न) इव (सृष्टाः) निर्मिताः (प्र) क्रियायोगे (नीचीः) नितरां सेव्याः (अग्ने) विद्वन् (अरुषीः) उषस इव सर्वसुखप्रापिका विद्याः क्रिया वा (अजानन्) जानीयुः ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या ! यथायोग्यं विदुषामाचरणं स्वीकुरुत, नैवाविदुषाम्। यथा नद्यः सुखानि सृजन्ति तथा सर्वेभ्यः सर्वाणि सुखानि सृजत ॥ १० ॥ अत्रेश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! तुम्ही यथायोग्य विद्वानांच्या आचरणाचा स्वीकार करा, अविद्वानांच्या नव्हे व नदी जशी सुखाचे कारण असते तसे सर्वांसाठी सुख उत्पन्न करा. ॥ १० ॥