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मनो॒ न योऽध्व॑नः स॒द्य एत्येकः॑ स॒त्रा सूरो॒ वस्व॑ ईशे। राजा॑ना मि॒त्रावरु॑णा सुपा॒णी गोषु॑ प्रि॒यम॒मृतं॒ रक्ष॑माणा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mano na yo dhvanaḥ sadya ety ekaḥ satrā sūro vasva īśe | rājānā mitrāvaruṇā supāṇī goṣu priyam amṛtaṁ rakṣamāṇā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मनः॑। न। यः। अध्व॑नः। स॒द्यः। एति॑। एकः॑। स॒त्रा। सूरः॑। वस्वः॑। ई॒शे॒। राजा॑ना। मि॒त्रावरु॑णा। सु॒पा॒णी इति॑ सु॒ऽपा॒णी। गोषु॑। प्रि॒यम्। अ॒मृत॑म्। रक्ष॑माणा ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:71» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्या से क्या प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रीपुरुषो ! तुम विद्वान्मनुष्य जैसे (मनः) सङ्कल्पविकल्परूप अन्तःकरण की वृत्ति के (न) समान वा (सूरः) प्राणियों के गर्भों को बाहर करनेहारी प्राणस्थ बिजुली के तुल्य विमान आदि यानों से (अध्वनः) मार्गों को (सद्यः) शीघ्र (एति) जाता और (यः) जो (एकः) सहायरहित एकाकी (सत्रा) सत्य गुण, कर्म और स्वभाववाला (वस्वः) द्रव्यों को शीघ्र (ईशे) प्राप्त करता है, वैसे (गोषु) पृथिवीराज्य में (प्रियम्) प्रीतिकारक (अमृतम्) सब सुखों-दुःखों के नाश करनेवाले अमृत की (रक्षमाणा) रक्षा करनेवाले (सुपाणी) उत्तम व्यवहारों से युक्त (मित्रावरुणौ) सबके मित्र सब से उत्तम (राजाना) सभा वा विद्या के अध्यक्षों के सदृश हो के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध किया करो ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे मनुष्य विद्या और विद्वानों के संग के विना विमानादि यानों को रच और उनमें स्थित होकर देश-देशान्तर में शीघ्र जाना-आना, सत्य विज्ञान, उत्तम द्रव्यों की प्राप्ति और धर्मात्मा राजा राज्य के सम्पादन करने को समर्थ नहीं हो सकते, वैसे स्त्री और पुरुषों में निरन्तर विद्या और शरीरबल की उन्नति के विना सुख की बढ़ती कभी नहीं हो सकती ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्यया किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे स्त्रीपुरुषो ! युवां यथा विद्वान् मनो न सूर इव विमानादियानैरध्वनः पारं सद्य एति य एकः सत्रा वस्व ईशे तथा गोषु प्रियममृतं रक्षमाणा सुपाणी मित्रावरुणौ राजा नेव भूत्वा धर्मार्थकाममोक्षान् साध्नुयाताम् ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मनः) सङ्कल्पविकल्पात्मिकान्तःकरणवृत्तिः (न) इव (यः) विद्वान् (अध्वनः) मार्गान् (सद्यः) शीघ्रम् (एति) गच्छति (एकः) असहायः (सत्रा) सत्यान् गुणकर्मस्वभावान् (सूरः) प्राणिगर्भविमोचिका प्राणस्थविद्युदिव (वस्वः) वसूनि (ईशे) ऐश्वर्ययुक्तो भवति (राजाना) प्रकाशमानौ सभाविद्याध्यक्षौ (मित्रावरुणा) यः सर्वमित्रः सर्वेश्वरश्च तौ (सुपाणी) शोभनाः पाणयो व्यवहारा ययोस्तौ (गोषु) पृथिवीराज्येषु (प्रियम्) प्रीतिकरम् (अमृतम्) सर्वसुखप्रापकत्वेन दुःखविनाशकम् (रक्षमाणा) यौ रक्षतस्तौ। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम् ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा मनुष्या न विद्याविद्वत्सङ्गाभ्यां विना विमानादीन् रचयित्वा तत्र स्थित्वा देशान्तरेषु सद्यो गमनागमने सत्यविज्ञानमुत्तमद्रव्यप्राप्तिर्धार्मिको राजा च राज्यं भावयितुं शक्नुवन्ति तथा स्त्रीपुरुषेषु विद्या बलोन्नत्या विना सुखवृद्धिर्न भवति ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशी माणसे विद्या व विद्वानांच्या संगतीशिवाय विमान इत्यादी याने तयार करून त्यांच्यात स्थित होऊन देशदेशांतरी तात्काळ गमनागमन, सत्य विज्ञान, उत्तम द्रव्यांची प्राप्ती व धार्मिक राजा राज्याचे संपादन करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. तसेच स्त्री-पुरुषात निरंतर विद्या व शरीरबलाची वाढ झाल्याखेरीज सुखाची वृद्धी होऊ शकत नाही. ॥ ९ ॥