वांछित मन्त्र चुनें

गोषु॒ प्रश॑स्तिं॒ वने॑षु धिषे॒ भर॑न्त॒ विश्वे॑ ब॒लिं स्व॑र्णः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

goṣu praśastiṁ vaneṣu dhiṣe bharanta viśve baliṁ svar ṇaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गोषु॑। प्रऽश॑स्तिम्। वने॑षु। धिषे॑। भर॑न्त। विश्वे॑। ब॒लिम्। स्वः॑। नः॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:70» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:9 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:9


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (भरन्त) सब विश्व वा सब गुणों को धारण करनेवाले जगदीश्वर ! जिस कारण (पुरुत्रा) बहुत दान करने योग्य आप (गोषु) पृथिवी आदि पदार्थों में (बलिम्) संवरण (स्वः) आदित्य (वनेषु) किरणों में (प्रशस्तिम्) उत्तम व्यवहार और (नः) हम लोगों को (वि धिषे) विशेष धारण करते हो (विश्वे) सब (नरः) इससे विद्वान् लोग जैसे (पुत्राः) पुत्र (जिव्रेः) वृद्धावस्था को प्राप्त हुए (पितुः) पिता के सकाश से (वेदः) विद्याधन को (भरन्त) धारण करें (न) वैसे (त्वा) आपका (सपर्यन्) सेवन करते हैं ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम सब लोग जिस जगदीश्वर ने सनातन कारण से सब कार्य अर्थात् स्थूलरूप वस्तुओं को उत्पन्न करके स्पर्श आदि गुणों को प्रकाशित किया है, जिसकी सृष्टि में उत्पन्न हुए सब पदार्थों के पिता-पुत्र के समान सब जीव दायभागी हैं, जो सब प्राणियों के लिये सब सुखों को देता है, उसी की आत्मा, मन, वाणी, शरीर और धनों से सेवा करो ॥ ५ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे भरन्त ! पुरुत्रा गोषु बलिं स्वः वनेषु प्रशस्तिं नो विधिषेऽतो विश्वे नरः पुत्राः जिव्रेः पितुर्वेदो भरन्त न त्वा सपर्यन् ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (गोषु) पृथिव्यादिषु (प्रशस्तिम्) प्रशस्तव्यवहारम् (वनेषु) सम्यग्विभाजकेषु किरणेषु (धिषे) दधासि (भरन्त) यो भरति सर्वं विश्वं सर्वान् गुणांस्तत्संबुद्धौ (विश्वे) सर्वे (बलिम्) संवरणम् (स्वः) आदित्यम् (नः) अस्मान् (वि) विशेषे (त्वा) त्वाम् (नरः) नयनकर्त्तारो मनुष्याः (पुरुत्रा) पुरूणि देयानि (सपर्यन्) परिचरन्ति (पितुः) (न) इव (जिव्रेः) जीर्णात् वृद्धावस्थां प्राप्तात् जनकात् (वि) विशेषे (वेदः) विन्दति सुखानि येन धनेन तत् (भरन्त) धरन्तु ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! सर्वे यूयं येन जगदीश्वरेण सनातनात्कारणात्सर्वाणि कार्याणि वस्तून्युत्पाद्य स्पर्शादयो गुणाः प्रकाशिताः। यस्य सृष्टावुत्पन्नानां जनकस्य पुत्रा इव सर्वे जीवा दायभागिनः सन्ति। येन सर्वेभ्यः सर्वाणि सुखानि दीयन्ते तस्यात्ममनोवाक्छरीरधनैर्नित्यं परिचर्य्यां यूयं कुरुत ॥ ५ ॥