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वृषा॑ यू॒थेव॒ वंस॑गः कृ॒ष्टीरि॑य॒र्त्योज॑सा। ईशा॑नो॒ अप्र॑तिष्कुतः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vṛṣā yūtheva vaṁsagaḥ kṛṣṭīr iyarty ojasā | īśāno apratiṣkutaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृषा॑। यू॒थाऽइ॑व। वंस॑गः। कृ॒ष्टीः इ॒य॒र्ति॒। ओज॑सा। ईशा॑नः। अप्र॑तिऽस्कुतः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:7» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

परमेश्वर मनुष्यों को कैसे प्राप्त होता है, सो अर्थ अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (वृषा) वीर्य्यदाता रक्षा करनेहारा (वंसगः) यथायोग्य गाय के विभागों को सेवन करनेहारा बैल (ओजसा) अपने बल से (यूथेव) गाय के समूहों को प्राप्त होता है, वैसे ही (वंसगः) धर्म के सेवन करनेवाले पुरुष को प्राप्त होने और (वृषा) शुभगुणों की वर्षा करनेवाला (ईशानः) ऐश्वर्य्यवान् जगत् का रचनेवाला परमेश्वर अपने (ओजसा) बल से (कृष्टीः) धर्मात्मा मनुष्यों को तथा (वंसगः) अलग-अलग पदार्थों को पहुँचाने और (वृषा) जल वर्षानेवाला सूर्य्य (ओजसा) अपने बल से (कृष्टीः) आकर्षण आदि व्यवहारों को (इयर्त्ति) प्राप्त होता है॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और श्लेषालङ्कार है। मनुष्य ही परमेश्वर को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे ज्ञान की वृद्धि करने के स्वभाववाले होते हैं। और धर्मात्मा ज्ञानवाले मनुष्यों का परमेश्वर को प्राप्त होने का स्वभाव है। तथा जो ईश्वर ने रचकर कक्षा में स्थापन किया हुआ सूर्य्य है, वह अपने सामने अर्थात् समीप के लोकों को चुम्बक पत्थर और लोहे के समान खींचने को समर्थ होता है॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वरो मनुष्यान् कथं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

वंसगो वृषा यूथानीवाप्रतिष्कुत ईशानो वृषेश्वरः सूर्य्यश्चौजसा बलेन कृष्टीर्धर्मात्मनो मनुष्यान् आकर्षणादिव्यवहारान् वेयर्ति प्राप्नोति॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषा) शुभगुणवर्षणकर्त्ता (यूथेव) गोसमूहान् वृषभ इव। तिथपृष्ठ० (उणा०२.१२) (वंसगः) वंसं धर्मसेविनं संविभक्तपदार्थान् गच्छतीति। (कृष्टीः) मनुष्यानाकर्षणादिव्यवहारान्वा (इयर्ति) प्राप्नोति (ओजसा) बलेन (ईशानः) ऐश्वर्यवान् ऐश्वर्य्यहेतुः सृष्टेः कर्त्ता प्रकाशको वा (अप्रतिष्कुतः) सत्यभावनिश्चयाभ्यां याचितोऽनुग्रहीता स्वकक्षां विहायेतस्ततो ह्यचलितो वा॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्या एवेश्वरं प्राप्तुं समर्थास्तेषां ज्ञानोन्नतिकरणस्वभाववत्त्वात्। धर्मात्मनो मनुष्यानेव प्राप्तुमीश्वरस्य स्वभाववत्त्वाद्यथैतं प्राप्नुवन्ति तथेश्वरेण नियोजितत्वादयं सूर्य्योऽपि स्वसंनिहितान् लोकानाकर्षितुं समर्थोऽस्तीति॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व श्लेषालंकार आहेत. माणसेच परमेश्वराला प्राप्त करू शकतात, कारण ज्ञानवृद्धी करण्याचा त्यांचा स्वभाव असतो. धर्मात्मा ज्ञानवान माणसांना परमेश्वर प्राप्त होतो. ईश्वराने निर्माण केलेल्या कक्षेत सूर्य आपल्या समोरच्या अर्थात समीप असणाऱ्या गोलांना चुंबक, लोखंडाप्रमाणे खेचण्यास समर्थ असतो. ॥ ८ ॥