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इन्द्रं॑ व॒यं म॑हाध॒न इन्द्र॒मर्भे॑ हवामहे। युजं॑ वृ॒त्रेषु॑ व॒ज्रिण॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indraṁ vayam mahādhana indram arbhe havāmahe | yujaṁ vṛtreṣu vajriṇam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म्। व॒यम्। म॒हा॒ऽध॒ने। इन्द्र॑म्। अर्भे॑। ह॒वा॒म॒हे॒। युज॑म्। वृ॒त्रेषु॑। व॒ज्रिण॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:7» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त अर्थ और सूर्य्य तथा वायु के गुणों का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (महाधने) बड़े-बड़े भारी संग्रामों में (इन्द्रम्) परमेश्वर का (हवामहे) अधिक स्मरण करते रहते हैं और (अर्भे) छोटे-छोटे संग्रामों में भी इसी प्रकार (वज्रिणम्) किरणवाले (इन्द्रम्) सूर्य्य वा जलवाले वायु का जो कि (वृत्रेषु) मेघ के अङ्गों में (युजम्) युक्त होनेवाले इन के प्रकाश और सब में गमनागमनादि गुणों के समान विद्या, न्याय, प्रकाश और दूतों के द्वारा सब राज्य का वर्त्तमान विदित करना आदि गुणों का धारण सब दिन करते रहें॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो बड़े-बड़े भारी और छोटे-छोटे संग्रामों में ईश्वर को सर्वव्यापक और रक्षा करनेवाला मान के धर्म और उत्साह के साथ दुष्टों से युद्ध करें तो मनुष्य का अचल विजय होता है। तथा जैसे ईश्वर भी सूर्य्य और पवन के निमित्त से वर्षा आदि के द्वारा संसार का अत्यन्त सुख सिद्ध किया करता है, वैसे मनुष्य लोगों को भी पदार्थों को निमित्त करके कार्य्यसिद्धि करनी चाहिये॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरसूर्य्यवायुगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

वयं महाधने इन्द्रं परमेश्वरं हवामहे अर्भेऽल्पे चाप्येवं वज्रिणं वृत्रेषु युजमिन्द्रं सूर्य्यं वायुं च हवामहे स्पर्धामहे॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रम्) सर्वज्ञं सर्वशक्तिमन्तमीश्वरम् (वयम्) मनुष्याः (महाधने) महान्ति धनानि यस्मात्तस्मिन्संग्रामे। महाधन इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (इन्द्रम्) सूर्य्यं वायुं वा (अर्भे) स्वल्पे युद्धे (हवामहे) आह्वयामहे स्पर्धामहे वा। ह्वेञ्धातोरिदं लेटो रूपम्। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०६.१.३४) अनेन सम्प्रसारणम्। (युजम्) युनक्तीति युक् तम् (वृत्रेषु) मेघावयवेषु। वृत्र इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (वज्रिणम्) किरणवन्तं जलवन्तं वा। वज्रो वै भान्तः। (श०ब्रा०८.२.४.१०) अनेन प्रकाशरूपाः किरणा गृह्यन्ते। वज्रो वा आपः। (श०ब्रा०७.४.२.४१)॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। यद्यन्महदल्पं वा युद्धं प्रवर्त्तते तत्र तत्र सर्वतः स्थितं परमेश्वरं रक्षकं मत्वा दुष्टैः सह धर्मेणोत्साहेन च युद्ध आचरिते सति मनुष्याणां ध्रुवो विजयो जायते, तथा सूर्य्यवायुनिमित्तेनापि खल्वेतत्सिद्धिर्जायते। यथेश्वरेणौताभ्यां निमित्तीकृताभ्यां वृष्टिद्वारा संसारस्य महत्सुखं साध्यत एवं मनुष्यैरेतन्निमित्तैरेव कार्य्यसिद्धिः सम्पादनीयेति॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. लहानात लहान किंवा मोठ्यात मोठ्या युद्धात ईश्वराला सर्वव्यापक व रक्षक मानून धर्मपूर्वक उत्साहाने दुष्टांबरोबर युद्ध केल्यास माणसांचा निश्चित विजय होतो व जसे ईश्वरही सूर्य व वायूच्या निमित्ताने पर्जन्याद्वारे संसाराचे अत्यंत सुख सिद्ध करतो तसे माणसांनीही पदार्थांच्या निमित्ताने कार्यसिद्धी केली पाहिजे. ॥ ५ ॥