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इन्द्र॒ वाजे॑षु नोऽव स॒हस्र॑प्रधनेषु च। उ॒ग्र उ॒ग्राभि॑रू॒तिभिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra vājeṣu no va sahasrapradhaneṣu ca | ugra ugrābhir ūtibhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। वाजे॑षु। नः॒। अ॒व॒। स॒हस्र॑ऽप्रधनेषु। च॒। उ॒ग्रः। उ॒ग्राभिः॑। ऊ॒तिऽभिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:7» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इन्द्र शब्द से व्यवहार को दिखलाकर अब प्रार्थनारूप से अगले मन्त्र में परमेश्वरार्थ का प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्य देनेवाले जगदीश्वर ! (उग्रः) सब प्रकार से अनन्त पराक्रमवान् आप (सहस्रप्रधनेषु) असंख्यात धन को देनेवाले चक्रवर्त्ति राज्य को सिद्ध करनेवाले (वाजेषु) महायुद्धों में (उग्राभिः) अत्यन्त सुख देनेवाली (ऊतिभिः) उत्तम-उत्तम पदार्थों की प्राप्ति तथा पदार्थों के विज्ञान और आनन्द में प्रवेश कराने से हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये॥४॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर का यह स्वभाव है कि युद्ध करनेवाले धर्मात्मा पुरुषों पर अपनी कृपा करता है और आलसियों पर नहीं। इसी से जो मनुष्य जितेन्द्रिय विद्वान् पक्षपात को छोड़नेवाले शरीर और आत्मा के बल से अत्यन्त पुरुषार्थी तथा आलस्य को छो़ड़े हुए धर्म से बड़े-बड़े युद्धों को जीत के प्रजा को निरन्तर पालन करते हैं, वे ही महाभाग्य को प्राप्त होके सुखी रहते हैं॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इन्द्रशब्देन व्यावहारिकमर्थमुक्त्वाऽथेश्वरार्थमुपदिश्यते।

अन्वय:

हे जगदीश्वर ! उग्रो भवान् सहस्रप्रधनेषु वाजेषूग्राभिरूतिभिर्नो रक्ष सततं विजयं च प्रापय॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रदेश्वर ! (वाजेषु) संग्रामेषु। वाज इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (नः) अस्मान् (अव) रक्ष (सहस्रप्रधनेषु) सहस्राण्यसंख्यातानि प्रकृष्टानि धनानि प्राप्नुवन्ति येषु तेषु चक्रवर्त्तिराज्यसाधकेषु महायुद्धेषु। सहस्रमिति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (च) आवृत्त्यर्थे (उग्रः) सर्वोत्कृष्टः। ऋज्रेन्द्राग्र० (उणा०२.२९) निपातनम्। (उग्राभिः) अत्यन्तोत्कृष्टाभिः (ऊतिभिः) रक्षाप्राप्तिविज्ञानसुखप्रवेशनैः॥४॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वरो धार्मिकेषु योद्धृषु कृपां धत्ते नेतरेषु। ये मनुष्या जितेन्द्रिया विद्वांसः पक्षपातरहिताः शरीरात्मबलोत्कृष्टा अनलसाः सन्तो धर्मेण महायुद्धानि विजित्य राज्यं नित्यं रक्षन्ति त एव महाभाग्यशालिनो भूत्वा सुखिनो भवन्ति॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वराचा हा स्वभाव आहे की युद्ध करणाऱ्या धार्मिक पुरुषांवर आपली कृपा करतो, आळशी लोकांवर नाही. त्यामुळे जी माणसे जितेन्द्रिय, विद्वान, शरीर व आत्म्याच्या बलाने युक्त होतात व पक्षपात न करता अत्यंत पुरुषार्थी बनून आळस सोडून धर्माने मोठमोठी युद्धे जिंकतात व सतत प्रजेचे पालन करतात तीच सौभाग्यशाली व सुखी होतात. ॥ ४ ॥