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जने॒ न शेव॑ आ॒हूर्यः॒ सन्मध्ये॒ निष॑त्तो र॒ण्वो दु॑रो॒णे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jane na śeva āhūryaḥ san madhye niṣatto raṇvo duroṇe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

जने॑। न। शेवः॑। आ॒ऽहूर्यः॑। सन्। मध्ये॑। निऽस॑त्तः। र॒ण्वः। दु॒रो॒णे ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:69» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर यह विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - सब मनुष्यों को चाहिये कि जो (गोनाम्) गौओं के (ऊधः) दूध के स्थान के (न) समान (जने) गुणों से उत्तम सेवने योग्य मनुष्य में (शेवः) सुख करनेवाले के (न) समान (वेधाः) पूर्ण ज्ञानयुक्त (अदृप्तः) मोहरहित (स्वाद्म) स्वादिष्ठ (पितूनाम्) अन्नों का भोक्ता (दुरोणे) घर में (रण्वः) रमण करनेवाला (आहूर्य्यः) आह्वान करने योग्य सभा के मध्य में (निषत्तः) स्थित (विजानन्) सब विद्या का अनुभव करता हुआ (अग्निः) अग्नि के तुल्य ज्ञानप्रकाश से युक्त सभाध्यक्ष है, इसका सदा सेवन करो ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोगों को चाहिये कि जैसे गौओं का ऐन दूध आदि से सबको सुख देता है, वैसे विद्वान् मनुष्य सब का उपकारी होता है, वैसे ही सब में अभिव्याप्त जीव के मध्य में अन्तर्य्यामी रूप से व्याप्त ईश्वर पक्षपात को छोड़ के न्याय करता है, वैसे सभा आदि में स्थित सभापति तुम सबको सुख करानेवाले होओ ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

सर्वैर्मनुष्यैर्यो गोनामूधर्न जने शेवो न वेधा अदृप्तः स्वाद्म पितूनां दुरोणे रण्व आहूर्यः सभाया मध्ये निषत्तो विजानन् सन्नग्निरिव वर्त्तते स सदैव सेवनीयः ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वेधाः) ज्ञानवान्। वेधा इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (अदृप्तः) मोहरहितः (अग्निः) अग्निरिव ज्ञानप्रकाशकः (विजानन्) सर्वविद्या अनुभवन् (ऊधः) दुग्धाधिकरणम् (न) इव (गोनाम्) धेनूनाम्। अत्र गोः पादान्ते इति वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यपादान्तेऽपि नुट्। (स्वाद्म) स्वादिष्ठानाम्। अत्र सुपां सुलुगित्यामो लोपः। (पितूनाम्) अन्नानाम्। पितुरित्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (जने) गुणैरुत्कृष्टे सेवनीये (न) इव (शेवः) सुखकारी (आहूर्यः) आह्वातव्यः। अत्र ह्वेञ् धातोर्बाहुलकाद्यक् रुडागमश्च। (सन्) (मध्ये) सभायाः (निषत्तः) निषण्णः (रण्वः) रमयिता (दुरोणे) गृहे। दुरोण इति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा गवां दुग्धस्थानं यथा च विद्वज्जनः सर्वस्य हितकारी भवति, तथैव शुभैर्गुणैर्व्याप्ताः सभादिषु स्थिताः सभाध्यक्षादयो यूयं सर्वान् सुखयत ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा परमेश्वर किंवा पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान भेदभाव न करता मनुष्य इत्यादी प्राण्यांवर खरे उपकार करतात तसे सर्व माणसांनी वागावे. ॥ ४ ॥