सिन्धु॒र्न क्षोदः॒ प्र नीची॑रैनो॒न्नव॑न्त॒ गावः॒ स्व१॒॑र्दृशी॑के ॥
sindhur na kṣodaḥ pra nīcīr ainon navanta gāvaḥ svar dṛśīke ||
सिन्धुः॒। न। क्षोदः॑। प्र। नीचीः॑। ऐ॒नो॒त्। नव॑न्ते। गावः॑। स्वः॑। दृशी॑के ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर पूर्वोक्त कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
यः सभेशश्चराथा वसत्या गावोऽस्तं न गृहमिव नक्षन्ते गाव स्वर्दृशीक इद्धं नवन्तेव सिन्धुर्नीचीः क्षोदो न वः प्रैनोत् प्राप्नोति तं वयं सेवेमहि ॥ ५ ॥