र॒यिर्न चि॒त्रा सूरो॒ न सं॒दृगायु॒र्न प्रा॒णो नित्यो॒ न सू॒नुः ॥
rayir na citrā sūro na saṁdṛg āyur na prāṇo nityo na sūnuḥ ||
र॒यिः। न। चि॒त्रा। सूरः॑। न। स॒म्ऽदृक्। आयुः॑। न। प्रा॒णः। नित्यः॑। न। सू॒नुः ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छासठवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में पूर्वोक्त अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
हे मनुष्या ! भवन्तो रयिर्नेव चित्रः सूरो नेव संदृगायुर्नेव प्राणो नित्यो नेव सूनुः पयो नेव धेनुस्तक्वा नेव भूर्णिर्विभावा शुचिरग्निर्वना सिसक्ति तं यथावद् विज्ञाय कार्येषूपयोजयन्तु ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात ईश्वर व अग्नीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥