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अत्यो॒ नाज्म॒न्त्सर्ग॑प्रतक्तः॒ सिन्धु॒र्न क्षोदः॒ क ईं॑ वराते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

atyo nājman sargaprataktaḥ sindhur na kṣodaḥ ka īṁ varāte ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अत्यः॑। न। अज्म॑न्। सर्ग॑ऽप्रतक्तः। सिन्धुः॑। न। क्षोदः॑। कः। इ॒म्। व॒रा॒ते॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:65» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:9» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह परमात्मा कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो मनुष्य उस परमेश्वर को (रण्वा) सुख से प्राप्त करानेवाला (पुष्टिः) शरीर आत्मा और इन्द्रियों की पुष्टि के (न) समान (क्षोदः) जल (शम्भु) सुख सम्पन्न करनेवाले के (न) समान तथा (अज्मन्) मार्ग में (अत्यः) घोड़े के समान (सर्गप्रतक्तः) जल को संकोच करनेवाले (सिन्धुः) समुद्र (क्षोदः) जल के (न) समान (ईम्) जानने तथा प्राप्त करने योग्य परमेश्वर वा बिजुलीरूप अग्नि को (कः) कौन विद्वान् मनुष्य (वराते) स्वीकार करता है ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। कोई विद्वान् मनुष्य परमेश्वर को प्राप्त होके और बिजुलीरूप अग्नि जान के उससे उपकार लेने को समर्थ होता है, जैसे उत्तम पुष्टि, पृथिवी का राज्य, मेघ की वृष्टि, उत्तम जल, उत्तम घोड़े और समुद्र बहुत सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही परमेश्वर और बिजुली भी सब आनन्दों को प्राप्त कराते हैं, परन्तु इन दोनों का जाननेवाला विद्वान् मनुष्य दुर्लभ है ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यस्तमेतं परमात्मानं रण्वा पुष्टिर्नेव क्षितिः पृथ्वी नेव गिरिर्भुज्मनेव क्षोदः शंभुनेवाऽज्मन्नत्यो नेव सर्गप्रतक्तः क्षोदो नेव को वराते वृणुते स पूर्णविद्यो भवति ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुष्टिः) शरीरेन्द्रियात्मसौख्यवर्द्धिका (न) इव (रण्वा) या रण्वति सुखं प्रापयति सा (क्षितिः) क्षियन्ति निवसन्ति राज्यरत्नानि प्राप्नुवन्ति यस्यां सा (न) इव (पृथ्वी) भूमिः (गिरिः) मेघः (न) इव (भुज्म) सुखानां भोजयिता (क्षोदः) जलम् (न) इव (शंभु) सुखसम्पादकम् (अत्यः) साधुरश्वः (न) इव (अज्मन्) मार्गे (सर्गप्रतक्तः) यः सर्गमुदकं प्रतनक्ति संकोचयति सः। सर्ग इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (सिन्धुः) समुद्रः (न) इव (क्षोदः) जलसमूहः (कः) कश्चिदपि (ईम्) ज्ञातव्यं प्राप्तव्यं परमेश्वरं विद्युद्रूपमग्निं वा (वराते) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। कश्चिदेव मनुष्यः परमेश्वरस्य प्राप्तिं विद्युतो विज्ञानोपकरणे कर्त्तुं शक्नोति। यथा सर्वोत्तमा पुष्टिः पृथ्वीराज्यं मेघवृष्टिरुत्तममुदकं श्रेष्ठोऽश्वः समुद्रश्च बहूनि सुखानि ददाति। तथैव परमेश्वरो विद्युच्च सर्वानन्दान् प्रापयतः परन्त्वेतं ज्ञाता महाविद्वान् मनुष्यो दुर्लभो भवति ॥ ६ ॥