प॒श्वा न ता॒युं गुहा॒ चत॑न्तं॒ नमो॑ युजा॒नं नमो॒ वह॑न्तम् ॥
paśvā na tāyuṁ guhā catantaṁ namo yujānaṁ namo vahantam ||
प॒श्वा। न। ता॒युम्। गुहा॑। चत॑न्तम्। नमः॑। यु॒जा॒नम्। नमः॑। वह॑न्तम् ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पैंसठवें सूक्त का आरम्भ है। इसके पहिले मन्त्र में सर्वत्र व्यापक अग्नि शब्द का वाच्य जो पदार्थ है, उसका उपदेश किया है ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथान्तर्व्याप्तोऽग्निरुपदिश्यते ॥
हे सर्वविद्याभिव्याप्त सभेश्वर ! यजत्राः सजोषा धीरा विद्वांसः पदैः पश्वा तायुं नेव यं गुहा बुद्धौ चतन्तं नमो युजानं नमो वहन्तं त्वा त्वामनुग्मन्। उपसीदन् त्वां प्राप्य त्वय्यवतिष्ठन्ते वयमप्येवं प्राप्यावतिष्ठामहे ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात ईश्वर अग्निरूपी विद्युतच्या वर्णनामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥