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रोद॑सी॒ आ व॑दता गणश्रियो॒ नृषा॑चः शूराः॒ शव॒साहि॑मन्यवः। आ व॒न्धुरे॑ष्व॒मति॒र्न द॑र्श॒ता वि॒द्युन्न त॑स्थौ मरुतो॒ रथे॑षु वः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rodasī ā vadatā gaṇaśriyo nṛṣācaḥ śūrāḥ śavasāhimanyavaḥ | ā vandhureṣv amatir na darśatā vidyun na tasthau maruto ratheṣu vaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रोद॑सी॒ इति॑। आ। व॒द॒त॒। ग॒ण॒ऽश्रि॒यः॒। नृऽसा॑चः। शूराः॑। शव॑सा। अहि॑ऽमन्यवः। आ। व॒न्धुरे॑षु। अ॒मतिः॑। न। द॒र्श॒ता। वि॒द्युत्। न। त॒स्थौ॒। म॒रु॒तः॒। रथे॑षु। वः॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:64» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (गणश्रियः) इकट्ठे होके शोभा को प्राप्त होने (नृषाचः) मनुष्यों को कर्मों में संयुक्त करने और (अहिमन्यवः) अपनी व्याप्ति को जाननेवाले (शूराः) शूरवीर के तुल्य (मरुतः) शिल्पविद्या के जाननेवाले ऋत्विज् विद्वान् लोग जो (अमतिर्न) जैसे रूप तथा (दर्शता) देखने योग्य (विद्युत्) बिजुली (तस्थौ) वर्त्तमान होती वैसे वर्त्तमान वायु (बन्धुरेषु) यानयन्त्रों के बन्धनों में जो (शवसा) बल से (रोदसी) प्रकाश और भूमि को धारण करते हैं तथा जो (वः) तुम लोगों के (रथेषु) रथों में जोड़े हुए कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, उनका हम लोगों के लिये (आवदत) उपदेश कीजिये ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को जानना योग्य है कि सब मूर्तिमान् द्रव्यों के आधार, शूरवीरता के तुल्य तथा शिल्पविद्या और अन्य कार्य्यों के हेतु मुख्य करके पवन ही हैं, अन्य नहीं ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे गणश्रियो नृषाचोऽहिमन्यवः शूरा मरुतो ! येऽमतिर्न रूपमिव दर्शता विद्युत्तस्थौ न वर्त्तत इव वर्त्तमाना वायवो बन्धुरेषु रोदसी आधरन्ति ये वो युष्माकं रथेषु संयुक्ताः कार्य्याणि साध्नुवन्ति तानस्मभ्यमावदत समन्तादुपदिशत ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (आ) समन्तात् (वदत) उपदिशत (गणश्रियः) गणानां समूहानां श्रियः शोभा येषु ते (नृषाचः) ये कर्म्मसु नॄन् जीवान् साचयन्ति संयोजयन्ति ते (शूराः) शूरवीराः (शवसा) बलेन (अहिमन्यवः) येऽहिं व्याप्तिं मानयन्ति ज्ञापयन्ति ते (आ) अभितः (बन्धुरेषु) यानयन्त्राणां बन्धनेषु (अमतिः) रूपम्। अमतिरिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (न) इव (दर्शता) द्रष्टव्यानि (विद्युत्) स्तनयित्नुः (न) इव (तस्थौ) तिष्ठति (मरुतः) शिल्पविद्याविद ऋत्विजः (रथेषु) यानेषु (वः) युष्माकम् ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारौ। मनुष्यैः सर्वमूर्त्तद्रव्याधाराः शौर्य्यशिल्पविद्याकार्यहेतवो वायव एव सन्तीति बोद्धव्यम् ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. माणसांनी हे जाणावे की सर्व मूर्तिमान द्रव्यांचे आधार, शूरवीरता व शिल्पविद्या आणि अन्य कार्यांचे हेतू मुख्यत्वे वायूच आहेत, इतर नाहीत. ॥ ९ ॥