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देवता: इन्द्र: ऋषि: नोधा गौतमः छन्द: जगती स्वर: निषादः

च॒र्कृत्यं॑ मरुतः पृ॒त्सु दु॒ष्टरं॑ द्यु॒मन्तं॒ शुष्मं॑ म॒घव॑त्सु धत्तन। ध॒न॒स्पृत॑मु॒क्थ्यं॑ वि॒श्वच॑र्षणिं तो॒कं पु॑ष्येम॒ तन॑यं श॒तं हिमाः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

carkṛtyam marutaḥ pṛtsu duṣṭaraṁ dyumantaṁ śuṣmam maghavatsu dhattana | dhanaspṛtam ukthyaṁ viśvacarṣaṇiṁ tokam puṣyema tanayaṁ śataṁ himāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

च॒र्कृत्य॑म्। म॒रु॒तः॒। पृ॒त्ऽसु। दु॒स्तर॑म्। द्यु॒ऽमन्त॑म्। शुष्म॑म्। म॒घव॑त्ऽसु। ध॒त्त॒न॒। ध॒न॒ऽस्पृत॑म्। उ॒क्थ्य॑म्। वि॒श्वऽच॑र्षणिम्। तो॒कम्। पु॒ष्ये॒म॒। तन॑यम्। श॒तम्। हिमाः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:64» मन्त्र:14 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे पूर्वोक्त वायु कैसे गुणवाले हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) पवनवद्वर्त्तमान मनुष्यो ! जैसे हम (पृत्सु) सेनाओं में (चर्कृत्यम्) वार-वार करने योग्य कार्यों में कुशल (दुष्टरम्) दुःख से पार होने योग्य (द्युमन्तम्) अति प्रकाशयुक्त (शुष्मम्) सुखानेवाले बल को (मघवत्सु) प्रशंसनीय धनयुक्त राजकार्य्यों में (धनस्पृतम्) धन से प्रसन्न वा सेवा को प्राप्त हुए (उक्थ्यम्) कहने-सुनने योग्य (विश्वचर्षणिम्) सबको देखने योग्य (तोकम्) पुत्र तथा (तनयम्) विद्वान् पौत्र को प्राप्त होके (शतं हिमाः) हेमन्त ऋतु युक्त सौ वर्ष पर्य्यन्त (पुष्येम) बल, पराक्रम आदि से पुष्ट होवें, वैसे कर्म करके तुम भी सुख को (धत्तन) धारण करो ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग पवनों के योग से हमारे बिजुली, यन्त्र, बैल, सौ वर्ष पर्य्यन्त जीना और शरीर आदि में पुष्टि का होना ये सब काम होते हैं, इसलिए इन वायुओं की विद्या को युक्ति के साथ जान कर-उपयोग में लिया करते हैं, वैसे अन्य लोग भी आचरण करें ॥ १४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मरुतः मनुष्या ! यथा वयं पृत्सु चर्कृत्यं दुष्टरं द्युमन्तं शुष्मं बलं मघवत्सु धनस्पृतमुक्थ्यं विश्वचर्षणिं तोकं तनयं प्राप्य शतं हिमाः पुष्येम तथाऽनुष्ठाय यूयं सुखं धत्तन ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (चर्कृत्यम्) पुनः पुनः कर्त्तव्येषु साधुम्। अत्र यङ्लुङन्तात्करोतेः क्तस्ततः साध्वर्थे यत्। (मरुतः) वायुवद्वर्त्तमानाः (पृत्सु) पृतनासु सेनासु (दुष्टरम्) दुःखेन तरितुं योग्यम् (द्युमन्तम्) बहुप्रकाशवन्तम् (शुष्मम्) शोषकम् (मघवत्सु) प्रशस्तधनयुक्तेषु राजसु (धत्तन) धत्त (धनस्पृतम्) धनेन प्रीतं सेवितं वा (उक्थ्यम्) वक्तुं श्रोतुं योग्यम् (विश्वचर्षणिम्) सर्वदर्शकम् (तोकम्) अपत्यम् (पुष्येम) पुष्टा भवेम (तनयम्) विद्वांसं पौत्रम् (शतम्) शतसंख्याकान् (हिमाः) हेमन्तानृतून् ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वद्भिर्मरुतां विद्याग्रहणाय युक्त्योपयोगः क्रियते तथान्येऽप्याचरन्तु ॥ १४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे वायूच्या योगाने विद्युत, यंत्रे, बल, शतायुषी जीवन व शरीराची पुष्टी ही सर्व कामे होतात. त्यासाठी या वायूची विद्या युक्तीने जाणून विद्वान लोक उपयोग करून घेतात तसे इतरांनीही वागावे. ॥ १४ ॥