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प्र नू स मर्तः॒ शव॑सा॒ जनाँ॒ अति॑ त॒स्थौ व॑ ऊ॒ती म॑रुतो॒ यमाव॑त। अर्व॑द्भि॒र्वाजं॑ भरते॒ धना॒ नृभि॑रा॒पृच्छ्यं॒ क्रतु॒मा क्षे॑ति॒ पुष्य॑ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra nū sa martaḥ śavasā janām̐ ati tasthau va ūtī maruto yam āvata | arvadbhir vājam bharate dhanā nṛbhir āpṛcchyaṁ kratum ā kṣeti puṣyati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। नु। सः। मर्तः॑। शव॑सा। जना॑न्। अति॑। त॒स्थौ। वः॒। ऊ॒ती। म॒रुतः॑। यम्। आव॑त। अर्व॑त्ऽभिः॑। वाज॑म्। भ॒र॒ते॒। धना॑। नृऽभिः॑। आ॒ऽपृच्छ्य॑म्। क्रतु॑म्। आ। क्षे॒ति॒। पुष्य॑ति ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:64» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे उक्त वायु कैसे गुणवाले हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) युक्ति से सेवन किये हुए वायु के समान तुम (यम्) जिस मनुष्य की (आवत) रक्षा आदि करते हो (सः) वह (मर्त्तः) मनुष्य (ऊती) रक्षा आदि के सहित (शवसा) विद्या क्रियायुक्त बल (अर्वद्भिः) घोड़ों और (नृभिः) मनुष्यों के साथ (वाजम्) वेग अन्न (वः) तुम (जनान्) मनुष्यादि प्राणियों और (धना आ पृच्छ्यम्) धनों को पूछने योग्य अच्छे (क्रतुम्) बुद्धि वा कर्म्म को (नु) शीघ्र (प्रभरते) अच्छे प्रकार धारण करता (आक्षेति) अच्छे प्रकार निवासयुक्त करता, शरीर और आत्मा अन्तःकरण से (पुष्यति) बल को पुष्ट करता हुआ (तस्थौ) स्थित होता है ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य प्राणवायु की विद्या को जानकर उपयोग करते हैं, वे बलवान् प्रतिष्ठा को प्राप्त हो और दुःख तथा शत्रुओं को जीत कर उत्तम हाथी, घोड़े, मनुष्य, धन और बुद्धि से युक्त होके सदा सबको पुष्ट करते हैं ॥ १३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुतस्तेः वायवः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मरुतो ! यूयं यमावत स मर्त्त ऊती शवसाऽर्वद्भिरश्वैर्नृभिः सह वाजं वेगमन्नं वो जनान् धनान्यापृच्छ्य क्रतुं च नु प्रभरत आक्षेति शरीरात्मभ्यां चाति पुष्यति तस्थौ ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) प्रकृष्टार्थे (नु) शीघ्रम् (सः) (मर्त्तः) मनुष्यः (शवसा) विद्याक्रियायुक्तेन बलेन (जनान्) मनुष्यादीन् (अति) अतिशयेन (तस्थौ) तिष्ठति (वः) युष्माकम् (ऊती) ऊत्या रक्षादिना। अत्र सुपां सुलुगिति तृतीयायाः पूर्वसवर्णादेशः। (मरुतः) युक्त्या सेविता वायवः। (यम्) मनुष्यम् (आवत) विजानीत (अर्वद्भिः) वेगादिगुणैरश्वैः (वाजम्) वेगादिगुणसमूहम् (भरते) धरति (धना) (नृभिः) मनुष्यैः (आपृच्छ्यम्) समन्तात्प्रष्टव्यम् (क्रतुम्) प्रज्ञां कर्म वा (आ) समन्तात् (क्षेति) क्षियति निवासयति। अत्र बहुलं छन्दसीति शस्य लुक्। (पुष्यति) पुष्टं करोति ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः प्राणविद्यां विदित्वोपयुञ्जते ते बलवन्तः प्रतिष्ठिता भूत्वा दुःखानि शत्रूनुल्लङ्घ्योत्तमैर्हस्त्यश्वमनुष्यधनप्रज्ञायुक्ताः सन्तः सदा पुष्यन्ति ॥ १३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे प्राणवायूची विद्या जाणून तिचा उपयोग करतात. तीच बलवान बनून प्रतिष्ठा प्राप्त करतात व दुःख आणि शत्रूंना जिंकून उत्तम हत्ती, घोडे, माणसे, धन व बुद्धीने युक्त होऊन सदैव सर्वांना पुष्ट करतात. ॥ १३ ॥