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द्वि॒ता वि व॑व्रे स॒नजा॒ सनी॑ळे अ॒यास्यः॒ स्तव॑मानेभिर॒र्कैः। भगो॒ न मेने॑ पर॒मे व्यो॑म॒न्नधा॑रय॒द्रोद॑सी सु॒दंसाः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dvitā vi vavre sanajā sanīḻe ayāsyaḥ stavamānebhir arkaiḥ | bhago na mene parame vyomann adhārayad rodasī sudaṁsāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्वि॒ता। वि। व॒व्रे॒। स॒ऽनजा॑। सनी॑ळे॒ इति॒ सऽनी॑ळे। अ॒यास्यः॑। स्तव॑मानेभिः। अ॒र्कैः। भगः॑। न। मेने॒ इति॑। प॒र॒मे। विऽओ॑मन्। अधा॑रयत्। रोद॑सी॒ इति॑। सु॒ऽदंसाः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:62» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे विद्वानों से जो (सनीडे) समीप (स्तवमानेभिः) स्तुतियुक्त (अर्कैः) स्तोत्रों से (सनजा) सनातन कारण से उत्पन्न हुई (द्विता) दो अर्थात् प्रजा और सभाध्यक्ष को (विवव्रे) विशेष करके स्वीकार किया जाता है, वैसे मनुष्य (अयास्यः) अनायास से सिद्ध करनेवाला (सुदंसाः) उत्तम कर्मयुक्त मैं जैसे (परमे) (व्योमन्) उत्तम अन्तरिक्ष में (रोदसी) प्रकाश और भूमि को (भगो न) सूर्य्य के समान विद्वान् (मेने) मानता और (अधारयत्) धारण करता है, वैसे इसको धारण करता और मानता हूँ ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सभा आदि का अध्यक्ष ऐश्वर्य को और जैसे सूर्य प्रकाश तथा पृथिवी को धारण करता है, वैसे ही न्याय और विद्या को धारण करें ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यथा विद्वद्भिर्या सनीडे स्तवमानेभिरर्कैः सनजा द्विता विवव्रे विशेषेण व्रियते तथा मनुष्योऽयास्यः सुदंसा अहं परमे व्योमन् रोदसी भगो न सवितेव अधारयत् धारयेत् विद्वान् मेने तथाऽहं धरेयं मन्ये च ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्विता) द्वयोः प्रजासभाद्यध्यक्षयोर्भावो द्विता (वि) विशेषे (वव्रे) व्रियते (सनजा) या सनेति सनातनाज्जायते सा (सनीडे) समीपे (अयास्यः) प्रयत्नासाध्यः स्वाभाविकः (स्तवमानेभिः) स्तुवन्ति यैस्तैः (अर्कैः) स्तोत्रैः (भगः) ऐश्वर्य्यम् (न) इव (मेने) प्रक्षेप्ये। अत्र बाहुलकाङ्डुमिञ् धातोर्नः प्रत्ययः आत्वनिषेधश्च। (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) अन्तरिक्षे। अत्र सुपां सुलुक् इति सप्तम्या लुक्। (अधारयत्) धारयेत् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (सुदंसाः) शोभनानि दसांसि कर्माणि यस्मिन् सः ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सभाद्यध्यक्षेणैश्वर्य्यं ध्रियते यथा च सूर्य्यः प्रकाशपृथिव्यौ धरति तथैव न्यायविद्ये धर्त्तव्ये ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की जसा सभा इत्यादीचा अध्यक्ष ऐश्वर्याला व सूर्यप्रकाश पृथ्वीला धारण करतो तसेच न्याय व विद्या यांना धारण करावे. ॥ ७ ॥