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अ॒स्मा इदु॒ त्यदनु॑ दाय्येषा॒मेको॒ यद्व॒व्ने भूरे॒रीशा॑नः। प्रैत॑शं॒ सूर्ये॑ पस्पृधा॒नं सौव॑श्व्ये॒ सुष्वि॑माव॒दिन्द्रः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmā id u tyad anu dāyy eṣām eko yad vavne bhūrer īśānaḥ | praitaśaṁ sūrye paspṛdhānaṁ sauvaśvye suṣvim āvad indraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मै। इत्। ऊँ॒ इति॑। त्यत्। अनु॑। दा॒यि॒। ए॒षा॒म्। एकः॑। यत्। व॒व्ने। भूरेः॑। ईशा॑नः। प्र। एत॑शम्। सूर्ये॑। प॒स्पृ॒धा॒नम्। सौव॑श्व्ये। सुष्वि॑म्। आ॒व॒त्। इन्द्रः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उक्त सभाध्यक्ष और विद्युत् कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे विद्वानों ने (एषाम्) इन मनुष्यादि प्राणियों को सुख (दायि) दिया हो वैसे जो (एकः) उत्तम से उत्तम सहाय रहित (भूरेः) अनेक प्रकार के ऐश्वर्य्य का (ईशानः) स्वामी (इन्द्रः) सभा आदि का पति (सूर्ये) सूर्य्यमण्डल में है, वैसे (सौवश्व्ये) उत्तम-उत्तम घोड़े से युक्त सेना में (यत्) जिस (पस्पृधानम्) परस्पर स्पर्द्धा करते हुए (सुष्विम्) उत्तम ऐश्वर्य्य के देनेवाले (एतशम्) घोड़े की (अनुवव्ने) यथायोग्य याचना करता है (त्यत्) उसको (अस्मै) इस (इदु) सभाध्यक्ष ही के लिये (प्रावत्) अच्छे प्रकार रक्षा करता है, वह सभा के योग्य होता है ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जो बहुत सुख देने तथा घोड़ों की विद्या को जाननेवाला और उपमारहित पुरुषार्थी विद्वान् मनुष्य है, उसी को प्रजा की रक्षा करने में नियुक्त करें और बिजुली की विद्या का ग्रहण भी अवश्य करें ॥ १५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सभाध्यक्षविद्युतौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यथा विद्वद्भिरेषां सुखं दायि तथा य एको भूरेरीशान इन्द्रः सूर्ये इव यद्यं सौवश्व्ये पस्पृधानं सुष्विमेतशमनुवव्ने याचते त्यत्तस्मा इदु सभाद्यध्यक्षाय प्रावत् स सभामर्हति ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) उक्ताय (इत्) अपि (उ) वितर्के (त्यत्) तम् (अनु) पश्चात् (दायि) दीयते (एषाम्) मनुष्याणां लोकानां वा (एकः) अनुत्तमोऽसहायः (यत्) यम् (वव्ने) याचते (भूरेः) बहुविधस्यैश्वर्यस्य (ईशानः) अधिपतिः (प्र) प्रकृष्टे (एतशम्) अश्वम्। एतश इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (सूर्ये) सवितृप्रकाशे (पस्पृधानम्) पुनः पुनः स्पर्द्धमानम् (सौवश्व्ये) शोभना अश्वास्तुरङ्गा विद्यन्ते यासु सेनासु ते स्वश्वास्तेषां भावे (सुष्विम्) शोभनैश्वर्यप्रदम् (आवत्) रक्षेत् (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यो बहुसुखदाताऽश्वविद्याविदनुपमपुरुषार्थी विद्वान् मनुष्योऽस्ति स एव रक्षणे नियोजनीयः, विद्युद्विद्या च संग्राह्या ॥ १५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो पुष्कळ सुख देणारा व घोड्यांची विद्या जाणणारा व अनुपम पुरुषार्थी विद्वान माणूस आहे. त्यालाच माणसांनी प्रजेचे रक्षण करण्यास नियुक्त करावे व विद्युतविद्याही अवश्य ग्रहण करावी. ॥ १५ ॥