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अ॒स्येदु॑ भि॒या गि॒रय॑श्च दृ॒ळ्हा द्यावा॑ च॒ भूमा॑ ज॒नुष॑स्तुजेते। उपो॑ वे॒नस्य॒ जोगु॑वान ओ॒णिं स॒द्यो भु॑वद्वी॒र्या॑य नो॒धाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asyed u bhiyā girayaś ca dṛḻhā dyāvā ca bhūmā januṣas tujete | upo venasya joguvāna oṇiṁ sadyo bhuvad vīryāya nodhāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्य। इत्। ऊँ॒ इति॑। भि॒या। गि॒रयः॑। च॒। दृ॒ळ्हाः। द्यावा॑। च॒। भूमा॑। ज॒नुषः॑। तु॒जे॒ते॒ इति॑। उपो॒ इति॑। वे॒नस्य॑। जोगु॑वानः। ओ॒णिम्। स॒द्यः। भु॒व॒त्। वी॒र्या॑य। नो॒धाः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:14 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (जोगुवानः) अव्यक्त शब्द करने (नोधाः) सेना का नायक सभा आदि का अध्यक्ष (सद्यः) शीघ्र (वीर्य्याय) पराक्रम के सिद्ध करने के लिये (भुवत्) हो जैसे सूर्य से (दृढाः) पुष्ट (गिरयः) मेघ के समान (अस्य) इस (वेनस्य) मेधावी के (इत्) (उ) ही (भिया) भय से (च) शत्रुजन कम्पायमान होते हैं, जैसे (द्यावा) प्रकाश (च) और भूमि (तुजेते) काँपते हैं, वैसे (जनुषः) मनुष्य लोग भय को प्राप्त होते हैं, वैसे हम लोग उस सभाध्यक्ष के (उपो) निकट भय को प्राप्त न (भूम) हों और वह सभाध्यक्ष भी (ओणिम्) दुःख को दूरकर सुख को प्राप्त होता है ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यह सबको निश्चय समझना चाहिये कि विद्या आदि उत्तम गुण तथा ईश्वर से जगत् के उत्पन्न होने विना सभाध्यक्ष आदि प्रजा का पालन करने और जैसे सूर्य सब लोकों को प्रकाशित तथा धारण करने को समर्थ नहीं हो सकता, इसलिये विद्या आदि श्रेष्ठगुणों और परमेश्वर ही की प्रशंसा और स्तुति करना उचित है ॥ १४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यो जोगुवानो नोधाः सभाध्यक्षः सद्यो वीर्याय भुवद् यथा सूर्याद् दृढा गिरयो मेघा इवाऽस्य वेनस्येदु भिया च शत्रवः कम्पन्ते यथा द्यावा च तुजेते इव जनुषो भयं प्राप्नुवन्ति नोपो भूम स ओणिमाप्नोति ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (इत्) (उ) पादपूरणार्थौ (भिया) भयेन (गिरयः) मेघाः। गिरिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (च) शत्रूणां समुच्चये (दृढाः) स्थिराः कृता (द्यावा) द्यौः प्रकाशः। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (च) समुच्चये (भूम) भवेम (जनुषः) जनाः (तुजेते) हिंस्तः (उपो) समीपे (वेनस्य) मेधाविनः। वेन इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (जोगुवानः) पुनः पुनरव्यक्तशब्दं कुर्वन् (ओणिम्) दुःखान्धकारस्यापनयनम् (सद्यः) शीघ्रम् (भुवत्) भवति (वीर्याय) पराक्रमसम्पादनाय (नोधाः) नायकान् प्राप्तिकरान् धरन्तीति। अत्र णीञ् धातोर्बाहुलकादौणादिको डो प्रत्ययस्तदुपपदाड्डुधाञ्धातोश्च क्विप् ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न किल विद्यादिसद्गुणैरीश्वरेण जगदुत्पादितेन विना सभाद्यध्यक्षादयः प्रजाः पालयितुं यथा सूर्यः सर्वांल्लोकान् प्रकाशयितुं धर्तुं च शक्नोति तस्माद्विद्याद्युत्तमगुणग्रहणं परेशस्तवनं च कार्यम् ॥ १४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्वांनी हे निश्चित समजावे की, विद्या इत्यादी उत्तम गुण व ईश्वराकडून जगाची उत्पत्ती झाल्याखेरीज सभाध्यक्ष इत्यादी प्रजेचे पालन करण्यास व सूर्य सर्व लोकांना प्रकाशित व धारण करण्यास समर्थ होत नाही. त्यासाठी विद्या इत्यादी श्रेष्ठ गुण व परमेश्वराची प्रशंसा आणि स्तुती करणे योग्य आहे. ॥ १४ ॥