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दे॒व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिरः॑। म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

devayanto yathā matim acchā vidadvasuṁ giraḥ | mahām anūṣata śrutam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒व॒ऽयन्तः॑। यथा॑। म॒तिम्। अच्छ॑। वि॒दत्ऽव॑सुम्। गिरः॑। म॒हाम्। अ॒नू॒ष॒त॒। श्रु॒तम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:6» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे पवन कैसे हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (देवयन्तः) सब विज्ञानयुक्त (गिरः) विद्वान् मनुष्य (विदद्वसुम्) सुखकारक पदार्थविद्या से युक्त (महाम्) अत्यन्त बड़ी (मतिम्) बुद्धि (श्रुतम्) सब शास्त्रों के श्रवण और कथन को (अच्छ) अच्छी प्रकार (अनूषत) प्रकाश करते हैं, वैसे ही अच्छी प्रकार साधन करने से वायु भी शिल्प अर्थात् सब कारीगरी को सिद्ध करते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को वायु के उत्तम गुणों का ज्ञान, सब का उपकार और विद्या की वृद्धि के लिये प्रयत्न सदा करना चाहिये, जिससे सब व्यवहार सिद्ध हों। गान करनेवाले धर्मात्मा जो वायु हैं, उन्होंने इन्द्र को ऐसी वाणी सुनाई कि तू जीत जीत। यह भी मोक्षमूलर का अर्थ अच्छा नहीं, क्योंकि देवयन्तः इस शब्द का अर्थ यह है कि मनुष्य लोग अपने अन्तःकरण से विद्वानों के मिलने की इच्छा रखते हैं। इस अर्थ से मनुष्यों का ग्रहण होता है ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा भवन्तीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

यथा देवयन्तो गिरो विद्वांसो मनुष्या विदद्वसुं महां महतीं मतिं बुद्धिं श्रुतं वेदशास्त्रार्थयुक्तं श्रवणं कथनं चानूषत प्रशस्तं कुर्वन्ति, तथैव मरुतः स्ववेगादिगुणयुक्ताः सन्तो वाक्श्रोत्रचेष्टामहच्छिल्पकार्य्यं च प्रशस्तं साधयन्ति ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (देवयन्तः) प्रकाशयन्त आत्मनो देवमिच्छन्तो मनुष्याः (यथा) येन प्रकारेण (मतिम्) बुद्धिम् (अच्छ) उत्तमरीत्या। निपातस्य चेति दीर्घः। (विदद्वसुम्) विदद्भिः सुखज्ञापकैर्वसुभिर्युक्ताम् (गिरः) गृणन्ति ये ते गिरो विद्वांसः (महाम्) महतीम् (अनूषत) प्रशस्तां कुर्वन्ति। णू स्तवन इत्यस्य लुङ्प्रयोगः। संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति गुणाभावः, लडर्थे लुङ् च। (श्रुतम्) सर्वशास्त्रश्रवणकथनम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्मरुतां सकाशाल्लोकोपकारार्थं विद्याबुद्ध्यर्थं च सदा प्रयत्नः कार्य्यो येन सर्वे व्यवहाराः सिद्धेयुरिति। ‘धर्मात्मभिर्गायनैर्मरुद्भिरिन्द्राय जयजयेति श्राविताः’ इति मोक्षमूलरोक्तिरन्यथास्ति। कुतः, देवयन्त इत्यात्मनो देवं विद्वांसमिच्छन्त इत्यर्थान्मनुष्याणामेव ग्रहणम् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसाला वायूच्या उत्तम गुणांचे ज्ञान, सर्वांवर उपकार व विद्येच्या वृद्धीसाठी सदैव प्रयत्न केले पाहिजेत, ज्यामुळे सर्व व्यवहार सिद्ध व्हावेत. ॥ ६ ॥
टिप्पणी: ‘‘गान करणारे धर्मात्मा जे वायू आहेत त्यांनी इंद्राला अशी वाणी ऐकविली की तू जिंक जिंक’’ हा मोक्षमूलर साहेबांचा अर्थ योग्य नाही. कारण ‘देवयन्तः’ या शब्दाचा अर्थ हा आहे की, माणसे आपल्या अंतःकरणाने विद्वानांना भेटण्याची इच्छा बाळगतात. याप्रमाणे माणसांच्या अर्थाचे ग्रहण केलेले आहे. ॥ ६ ॥