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वी॒ळु चि॑दारुज॒त्नुभि॒र्गुहा॑ चिदिन्द्र॒ वह्नि॑भिः। अवि॑न्द उ॒स्रिया॒ अनु॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vīḻu cid ārujatnubhir guhā cid indra vahnibhiḥ | avinda usriyā anu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वी॒ळु। चि॒त्। आ॒रु॒ज॒त्नुऽभिः॑। गुहा॑। चि॒त्। इ॒न्द्र॒। वह्नि॑ऽभिः। अवि॑न्दः। उ॒स्रियाः॑। अनु॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:6» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उन पवनों के साथ सूर्य्य क्या करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (चित्) जैसे मनुष्य लोग अपने पास के पदार्थों को उठाते धरते हैं, (चित्) वैसे ही सूर्य्य भी (वीळु) दृढ बल से (उस्रियाः) अपनी किरणों करके संसारी पदार्थों को (अविन्दः) प्राप्त होता है, (अनु) उसके अनन्तर सूर्य्य उनको छेदन करके (आरुजत्नुभिः) भङ्ग करने और (वह्निभिः) आकाश आदि देशों में पहुँचानेवाले पवन के साथ ऊपर-नीचे करता हुआ (गुहा) अन्तरिक्ष अर्थात् पोल में सदा चढ़ाता गिराता रहता है॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बलवान् पवन अपने वेग से भारी-भारी दृढ वृक्षों को तोड़ फोड़ डालते और उनको ऊपर नीचे गिराते रहते हैं, वैसे ही सूर्य्य भी अपनी किरणों से उनका छेदन करता रहता है, इससे वे ऊपर नीचे गिरते रहते हैं। इसी प्रकार ईश्वर के नियम से सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश को भी प्राप्त होते रहते हैं। ।हे इन्द्र ! तू शीघ्र चलनेवाले वायु के साथ अप्राप्त स्थान में रहनेवाली गौओं को प्राप्त हुआ। यह भी मोक्षमूलर साहब की व्याख्या असङ्गत है, क्योंकि उस्रा यह शब्द निघण्टु में रश्मि नाम में पढ़ा है, इससे सूर्य्य की किरणों का ही ग्रहण होना योग्य है। तथा गुहा इस शब्द से सबको ढाँपनेवाला होने से अन्तरिक्ष का ग्रहण है॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तैः सह सूर्य्यः किं करोतीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

चिद्यथा मनुष्याः स्वसमीपस्थान् पदार्थानुपर्य्यधश्च नयन्ति, तथैवेन्द्रोऽयं सूर्य्यो वीळुबलेनोस्रियाः क्षेपयित्वा पदार्थान् विन्दतेऽनु पश्चात्तान् भित्त्वाऽऽरुजत्नुभिर्वह्निभिर्मरुद्भिः सह त्वामेतत्पदार्थसमूहं गुहायामन्तरिक्षे स्थापयति॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वीळु) दृढं बलम्। वीळु इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (चित्) उपमार्थे। (निरु०१.४) (आरुजत्नुभिः) समन्ताद् भञ्जद्भिः। आङ्पूर्वाद् रुजो भङ्ग इत्यस्माद्धातोरौणादिकः क्त्नुः प्रत्ययः। (गुहा) गुहायामन्तरिक्षे। सुपां सुलुगिति ङेर्लुक्। गुहा गूहतेः। (निरु०१३.८) (चित्) एवार्थे। चिदिदं पूजायाम्। (निरु०१.४) (इन्द्रः) सूर्य्यः (वह्निभिः) वोढृभिर्मरुद्भिः सह। वहिशृ० (उणा०४.५१) इति वहेरौणादिको निः प्रत्ययः। (अविन्दः) लभते। पूर्ववदत्र पुरुषव्यत्ययः, लडर्थे लङ् च। (उस्रियाः) किरणाः। अत्र इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानमित्यनेन शसः स्थाने डियाजादेशः। उस्रेति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अनु) पश्चादर्थे॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा बलवन्तो मरुतो दृढेन स्ववेगेन दृढानपि वृक्षादीन् भञ्जन्ति तथा सूर्य्यस्तानहर्निशं किरणैश्छिनत्ति मरुतश्च तानुपर्य्यधो नयन्ति, एवमेवेश्वरनियमेन सर्वे पदार्था उत्पत्तिविनाशावपि प्राप्नुवन्ति। ‘हे इन्द्र ! त्वया तीक्ष्णगतिभिर्वायुभिः सह गूढस्थानस्था गावः प्राप्ता’ इति मोक्षमूलरव्याख्याऽसङ्गतास्ति। कुतः, उस्रेति रश्मिनामसु निघण्टौ (१.५) पठितत्वेनात्रैतस्यार्थस्यैवार्थस्य योग्यत्वात्। गुहेत्यनेन सर्वावरकत्वादन्तरिक्षस्यैव ग्रहणार्हत्वादिति॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा बलवान वायू आपल्या वेगाने मोठमोठ्या मजबूत वृक्षांना तोडून टाकतो व त्यांचा विध्वंस करतो. तसेच सूर्यही आपल्या किरणांनी पदार्थांना छिन्न भिन्न करतो. त्यामुळे ते खाली-वर होत असतात. याचप्रकारे ईश्वराच्या नियमाने सर्व पदार्थांची उत्पत्ती व विनाश होतो. ॥ ५ ॥
टिप्पणी: ‘‘हे इंद्र! तू जलद वाहणाऱ्या वायूबरोबर अप्राप्त स्थानी राहणाऱ्या गायींना प्राप्त केलेस’’ ही मोक्षमूलर साहेबाची व्याख्याही अनुचित आहे. कारण उस्रा हा शब्द निघण्टुमध्ये रश्मि या अर्थाने वापरलेला आहे. यामुळे सूर्याची किरणे हाच अर्थ योग्य आहे. ‘गुहा’ या शब्दाचा अर्थ सर्वांना आच्छादित करणारा असल्यामुळे अंतरिक्ष असा ग्रहण केलेला आहे. ॥ ५ ॥