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यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuñjanti bradhnam aruṣaṁ carantam pari tasthuṣaḥ | rocante rocanā divi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒ञ्जन्ति॑। ब्र॒ध्नम्। अ॒रु॒षम्। चर॑न्तम्। परि॑। त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते। रो॒च॒ना। दि॒वि॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:6» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

छठे सूक्त के प्रथम मन्त्र में यथायोग्य कार्य्यों में किस प्रकार से किन-किन पदार्थों को संयुक्त करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जो मनुष्य (अरुषम्) अङ्ग-अङ्ग में व्याप्त होनेवाले हिंसारहित सब सुख को करने (चरन्तम्) सब जगत् को जानने वा सब में व्याप्त (परितस्थुषः) सब मनुष्य वा स्थावर जङ्गम पदार्थ और चराचर जगत् में भरपूर हो रहा है, (ब्रध्नम्) उस महान् परमेश्वर को उपासना योग द्वारा प्राप्त होते हैं, वे (दिवि) प्रकाशरूप परमेश्वर और बाहर सूर्य्य वा पवन के बीच में (रोचना) ज्ञान से प्रकाशमान होके (रोचन्ते) आनन्द में प्रकाशित होते हैं। तथा जो मनुष्य (अरुषम्) दृष्टिगोचर में रूप का प्रकाश करने तथा अग्निरूप होने से लाल गुणयुक्त (चरन्तम्) सर्वत्र गमन करनेवाले (ब्रध्नम्) महान् सूर्य्य और अग्नि को शिल्पविद्या में (परियुञ्जन्ति) सब प्रकार से युक्त करते हैं, वे जैसे (दिवि) सूर्य्यादि के गुणों के प्रकाश में पदार्थ प्रकाशित होते हैं, वैसे (रोचनाः) तेजस्वी होके (रोचन्ते) नित्य उत्तम-उत्तम आनन्द से प्रकाशित होते हैं॥१॥
भावार्थभाषाः - जो लोग विद्यासम्पादन में निरन्तर उद्योग करनेवाले होते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इसलिये विद्वान् को उचित है कि पृथिवी आदि पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियों को लाभ पहुँचावें कि जिससे उनको भी सम्पूर्ण सुख मिलें। जो यूरोपदेशवासी मोक्षमूलर साहब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ घोड़े को रथ में जोड़ने का लिया है, सो ठीक नहीं। इसका खण्डन भूमिका में लिख दिया है, वहाँ देख लेना चाहिये॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रोक्तविद्यार्थं केऽर्था उपयोक्तव्या इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

ये मनुष्या अरुषं ब्रध्नं परितस्थुषश्चरन्तं परमात्मानं स्वात्मनि बाह्यदेशे सूर्य्यं वायुं वा युञ्जन्ति ते रोचना सन्तो दिवि प्रकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युञ्जन्ति) योजयन्ति (ब्रध्नम्) महान्तं परमेश्वरम्। शिल्पविद्यासिद्धय आदित्यमग्निं प्राणं वा। ब्रध्न इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३)। (अरुषम्) सर्वेषु मर्मसु सीदन्तमहिंसकं परमेश्वरं प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकं रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा। अरुषमिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (चरन्तम्) सर्वं जगज्जानन्तं सर्वत्र व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठन्तीति तान् सर्वान् स्थावरान् पदार्थान् मनुष्यान् वा। तस्थुष इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (रोचन्ते) प्रकाशन्ते रुचिहेतवश्च भवन्ति (रोचनाः) प्रकाशिताः प्रकाशकाश्च (दिवि) द्योतनात्मके ब्रह्मणि सूर्य्यादिप्रकाशे वा। अयं मन्त्रः शतपथेऽप्येवं व्याख्यातः—युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तमिति। असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोऽमुमेवाऽस्मा आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। (श०ब्रा०१३.१.१५.१)॥१॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर उपदिशति-ये खलु विद्यासम्पादने उद्युक्ता भवन्ति तानेव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति। तस्माद्विद्वांसः पृथिव्यादिपदार्थेभ्य उपयोगं सङ्गृह्योपग्राह्य च सर्वान् प्राणिनः सुखयेयुरिति। यूरोपदेशवासिना भट्टमोक्षमूलराख्येनास्य मन्त्रस्यार्थो रथेऽश्वस्य योजनरूपो गृहीतः; सोऽन्यथास्तीति भूमिकायां लिखितम्॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

सूर्य व वायूद्वारे जशी पुरुषार्थाची सिद्धी केली पाहिजे, ते गोल जगात कशाप्रकारे आहेत व त्यांचा लाभ कसा करून घेतला पाहिजे, इत्यादी प्रयोजनांनी पाचव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर सहाव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - जे लोक विद्या संपादन करण्यात निरंतर उद्युक्त असतात तेच सर्व सुख प्राप्त करतात. त्यासाठी विद्वानांनी पृथ्वी इत्यादी पदार्थांचा उपयोग करून घेऊन सर्व प्राण्यांना लाभ करून द्यावा, ज्यामुळे त्यांनाही सर्व सुख मिळेल. ॥ १ ॥
टिप्पणी: जे युरोप देशवासी मोक्षमूलर साहेब इत्यादींनी या मंत्राचा अर्थ - घोड्याचा रथ जोडण्यासाठी असा केलेला आहे, तो योग्य नाही. याचे खंडन भूमिकेमध्ये लिहिलेले आहे, तेथे पाहावे. ॥ १ ॥