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भवा॒ वरू॑थं गृण॒ते वि॑भावो॒ भवा॑ मघवन्म॒घव॑द्भ्यः॒ शर्म॑। उ॒रु॒ष्याग्ने॒ अंह॑सो गृ॒णन्तं॑ प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhavā varūthaṁ gṛṇate vibhāvo bhavā maghavan maghavadbhyaḥ śarma | uruṣyāgne aṁhaso gṛṇantam prātar makṣū dhiyāvasur jagamyāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

भव॑। वरू॑थम्। गृ॒ण॒ते। वि॒भा॒ऽवः॒। भव॑। म॒घ॒व॒न्। म॒घव॑त्ऽभ्यः। शर्म॑। उ॒रु॒ष्य। अ॒ग्ने॒। अंह॑सः। गृ॒णन्त॑म्। प्रा॒तः। म॒क्षु। धि॒याऽव॑सुः। ज॒ग॒म्या॒त् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:58» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभापति कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) उत्तम धनवाले (अग्ने) विज्ञान आदि गुणयुक्त सभाध्यक्ष विद्वन् ! तू (गृणते) गुणों के कीर्त्तन करनेवाले और (मघवद्भ्यः) विद्यादि धनयुक्त विद्वानों के लिये (वरूथम्) घर को और (शर्म) सुख को (विभावः) प्राप्त कीजिये तथा आप भी घर और सुख को (भव) प्राप्त हो (गृणन्तम्) स्तुति करते हुए मनुष्य को (अंहसः) पाप से (मक्षु) शीघ्र (उरुष्य) रक्षा कीजिये आप भी पाप से अलग (भव) हूजिये, ऐसा जो (धियावसुः) प्रज्ञा वा कर्म से वास कराने योग्य (प्रातः) प्रतिदिन प्रजा की रक्षा करता है, वह सुखों को (जगम्यात्) अतिशय करके प्राप्त होवे ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि जो विद्वान् धर्म वा विनय से सब प्रजा को शिक्षा देकर पालना करता है, उसी को सभा आदि का अध्यक्ष करें ॥ ९ ॥ इस सूक्त में अग्नि वा विद्वानों के गुण वर्णन करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स सभेशः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मघवन्नग्ने विद्वँस्त्वं गृणते मघवद्भ्यश्च वरूथं विभावो विभावय शर्म च गृणन्तमंहसो मक्षूरुष्य पाहि त्वमप्यंहसः पृथग्भव यो धियावसुरेवं प्रातः प्रतिदिनं प्रजारक्षणं विधत्ते, स सुखानि जगम्याद् भृशं प्राप्नुयात् ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भव) (वरूथम्) गृहम्। वरूथमिति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (गृणते) गुणान् कीर्तयते (विभावः) विभावय (भव) अत्रोभयत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मघवन्) परमधनवन् (मघवद्भ्यः) विद्यादिधनयुक्तेभ्यः (शर्म) सुखम् (उरुष्य) पाहि (अग्ने) विज्ञानादियुक्त (अंहसः) पापात् (गृणन्तम्) स्तुवन्तम् (प्रातः) दिनारम्भे (मक्षु) शीघ्रम्। अत्र ऋचि तुनु० (अष्टा०६.३.१३३) इति दीर्घः। (धियावसुः) धिया कर्मणा प्रज्ञया वा वासयितुं योग्यः (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात् ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यो विद्वान् धर्मविनयाभ्यां सर्वाः प्रजाः प्रशास्य पालयेत्, स एव सभाद्यध्यक्षः स्वीकार्य्यः ॥ ९ ॥ ।अस्मिन् सूक्तेऽग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्बोध्या ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो विद्वान धर्म किंवा विनम्रतेने सर्व प्रजेला शिक्षण देऊन पालन करतो. त्यालाच माणसांनी सभा इत्यादीचा अध्यक्ष करावे. ॥ ९ ॥