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अच्छि॑द्रा सूनो सहसो नो अ॒द्य स्तो॒तृभ्यो॑ मित्रमहः॒ शर्म॑ यच्छ। अग्ने॑ गृ॒णन्त॒मंह॑स उरु॒ष्योर्जो॑ नपात्पू॒र्भिराय॑सीभिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

acchidrā sūno sahaso no adya stotṛbhyo mitramahaḥ śarma yaccha | agne gṛṇantam aṁhasa uruṣyorjo napāt pūrbhir āyasībhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अच्छि॑द्रा। सू॒नो॒ इति॑। स॒ह॒सः॒। नः॒। अ॒द्य। स्तो॒तृऽभ्यः॑। मि॒त्र॒ऽम॒हः॒। शर्म॑। य॒च्छ॒। अग्ने॑। गृ॒णन्त॑म्। अंह॑सः। उ॒रु॒ष्य॒। ऊर्जः॑। न॒पा॒त्। पूः॒ऽभिः। आय॑सीभिः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:58» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब आत्मज्ञ योगीजन कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहसः) पूर्ण ब्रह्मचर्य्य से शरीर और विद्या से आत्मा के बलयुक्त जन का (सूनो) पुत्र (मित्रमहः) सबके मित्र और पूजनीय (अग्नेः) अग्निवत् प्रकाशमान विद्वन् ! (नपात्) नीच कक्षा में न गिरनेवाला तू (अद्य) आज अपने आत्मस्वरूप के उपदेश से (नः) हम को (अंहसः) पापाचरण से (पाहि) अलग रक्षा कर (अच्छिद्रा) छेद-भेद रहित (शर्म) सुखों को (यच्छ) प्राप्त कर (स्तोतृभ्यः) विद्वानों से विद्याओं की प्राप्ति हम को करा। हे विद्वन् ! तू आत्मा की (गृणन्तम्) स्तुति के कर्त्ता को (आयसीभिः) सुवर्ण आदि आभूषणों की ईश्वर की रचनारूप (पूर्भिः) रक्षा करने में समर्थ अन्न आदि क्रियाओं के साथ (ऊर्जः) पराक्रम के बल से (उरुष्य) दुःख से पृथक् रख ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - हे आत्मा और परमात्मा को जाननेवाले योगी लोगो ! तुम आत्मा और परमात्मा के उपदेश से सब मनुष्यों को दुःख से दूर करके निरन्तर सुखी किया करो ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथात्मविदो योगिनः कीदृशः स्युरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे सहसः सूनो मित्रमहोऽग्ने विद्वँस्त्वमद्यात्मस्वरूपोपदेशेन नोंऽहसः पाह्यच्छिद्रा शर्म यच्छ स्तोतृभ्यो नो विद्याः प्रापय। हे विद्वँस्त्वमात्मानं गृणन्तं स्तुवन्तमायसीभिः पूर्भिरूर्ज उरुष्य दुःखात् पृथग्रक्ष ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अच्छिद्रा) अच्छिद्राणि छिद्ररहितानि (सूनो) यः सूयते सुनोति वा तत्सम्बुद्धौ (सहसः) विद्याविनयबलयुक्तस्य (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) अस्मिन् दिने (स्तोतृभ्यः) विद्यया पदार्थगुणस्तावकेभ्यः (मित्रमहः) मित्राणां महः सत्कारस्य कारयितः (शर्म) शर्माणि सुखानि (यच्छ) प्रदेहि (अग्ने) अग्निमिव प्रकाशक विद्वन् (गृणन्तम्) स्तुवन्तम् (अंहसः) दुःखात् (उरुष्य) पृथग्रक्ष। अयं कण्वादिगणे नामधातुर्गणनीयः। (ऊर्जः) पराक्रमात् (नपात्) न कदाचिदधः पतति (पूर्भिः) पूर्णाभिः पालनसमर्थाभिः क्रियायुक्ताभिरन्नमयादिभिः (आयसीभिः) अयसः सुवर्णनिर्मितान्याभूषणानीवेश्वरेण रचिताभिः ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - हे आत्मपरमात्मविदो योगिनो यूयमात्मपरमात्मन उपदेशेन सर्वान् नॄन् दुःखाद् दूरे कृत्वा सततं सुखिनः कुरुत ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे आत्मा व परमात्मा यांना जाणणाऱ्या योग्यांनो ! तुम्ही आत्मा व परमात्म्याच्या उपदेशाने सर्व माणसांना दुःखांपासून दूर करून निरंतर सुखी करा. ॥ ८ ॥