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देवता: इन्द्र: ऋषि: सव्य आङ्गिरसः छन्द: जगती स्वर: निषादः

इ॒मे त॑ इन्द्र॒ ते व॒यं पु॑रुष्टुत॒ ये त्वा॒रभ्य॒ चरा॑मसि प्रभूवसो। न॒हि त्वद॒न्यो गि॑र्वणो॒ गिरः॒ सघ॑त्क्षो॒णीरि॑व॒ प्रति॑ नो हर्य॒ तद्वचः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ime ta indra te vayam puruṣṭuta ye tvārabhya carāmasi prabhūvaso | nahi tvad anyo girvaṇo giraḥ saghat kṣoṇīr iva prati no harya tad vacaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मे। ते॒। इ॒न्द्र॒। ते। व॒यम्। पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒। ये। त्वा॒। आ॒ऽरभ्य॑। चरा॑मसि। प्र॒भु॒व॒सो॒ इति॑ प्रभुऽवसो। न॒हि। त्वत्। अ॒न्यः। गि॒र्व॒णः॒। गिरः॑। सघ॑त्। क्षो॒णीःऽइ॑व। प्रति॑। नः॒। ह॒र्य॒। तत्। वचः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:57» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में ईश्वर और सभा आदि के अध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (प्रभूवसो) समर्थ वा सुखों में वास देने (गिर्वणः) वेदविद्या से संस्कार की हुई वाणियों से सेवनीय (पुरुष्टुत) बहुतों से स्तुति करनेवाले (हर्य) कमनीय वा सर्वसुखप्रापक (इन्द्र) जगदीश्वर ! (ते) आपकी कृपा के सहाय से हम लोग (सघत्) (क्षोणीरिव) जैसे शूरवीर शत्रुओं को मारते हुए पृथिवी राज्य को प्राप्त होते हैं, वैसे (नः) हम लोगों के लिये (गिरः) वेदविद्या से अधिष्ठित वाणियों को प्राप्त कराने की इच्छा करनेवाले (त्वत्) आप से (अन्यः) भिन्न (नहि) कोई भी नहीं है (तत्) उन (वचः) वचनों को सुन कर वा प्राप्त करा जो (इमे) ये सन्मुख मनुष्य वा (ये) जो (ते) दूर रहनेवाले मनुष्य और (वयम्) हम लोग परस्पर मिलकर (ते) आप के शरण होकर (त्वारभ्य) आप के सामर्थ्य का आश्रय करके निर्भय हुए (प्रतिचरामसि) परस्पर सदा सुखयुक्त विचरते हैं ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जैसे शूरवीर शत्रुओं के बलों को निवारण और राज्य को प्राप्त कर सुखों को भोगते हैं, वैसे ही हे जगदीश्वर ! हम लोग अद्वितीय आप का आश्रय करके सब प्रकार विजयवाले होकर विद्या की वृद्धि को कराते हुए सुखी होते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे प्रभूवसो ! गिर्वणः पुरुष्टुत हर्येन्द्र जगदीश्वर ते तव कृपासहायेनेमे वयं सघत् क्षोणीरिव त्वारभ्य पृथिवीराज्यं चरामसि त्वं नोऽस्मभ्यं गिरः श्रुधि त्वदन्यः कश्चिदपि नो रक्षक इति नहि विजानीमो यच्च भवदुक्तं वेदवचस्तद्वयमाश्रयेम ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमे) सर्वे प्रत्यक्षा मनुष्याः (ते) तव (इन्द्र) जगदीश्वर (ते) सर्वे परोक्षाः (वयम्) सर्वे मिलित्वा (पुरुष्टुत्) पुरुभिर्बहुभिः स्तुतस्तत्सम्बुद्धौ (ये) पूर्वोक्ताः (त्वा) त्वाम् (आरभ्य) त्वत्सामर्थ्यमाश्रित्य (चरामसि) विचरामः (प्रभूवसो) प्रभूः सर्वसमर्थश्च वसुः सुखेषु वासप्रदश्चासौ तत्सम्बुद्धौ (नहि) निषेधे (त्वत्) तव सकाशात् (अन्यः) भिन्नस्त्वत्सदृक् (गिर्वणः) योगीभिर्वेदविद्यासंस्कृताभिर्वाग्भिर्वन्यते सम्भज्यते तत्सम्बुद्धौ। अत्र गिरुपदाद्वनधातोरौणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (गिरः) वाचः (सघत्) हिंसन्। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (क्षोणीरिव) यथा पृथिवीः। क्षोणीरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (प्रति) प्राप्त्यर्थे (न) अस्मभ्यम् (हर्य) कमनीय सर्वसुखप्रापक (तत्) वक्ष्यमाणम् (वचः) उपदेशकारकं वेदवचनम् ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या परब्रह्मणो भिन्नं वस्तूपास्यत्वेन नाङ्गीकुर्वन्ति तदुक्तवेदाभिहितं मतं विहायान्यन्नैव मन्यन्ते त एवात्र पूज्या जायन्ते ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व उपमोलंकार आहेत. जसे शूरवीर शत्रूंचे बल कमी करून राज्य प्राप्त करतात व सुख भोगतात तसेच हे जगदीश्वरा! आम्ही अद्वितीय अशा तुझ्या आश्रयाने सर्व प्रकारे विजयी होऊन विद्येची वृद्धी करवून सुखी होतो. ॥ ४ ॥