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अ॒स्मै भी॒माय॒ नम॑सा॒ सम॑ध्व॒र उषो॒ न शु॑भ्र॒ आ भ॑रा॒ पनी॑यसे। यस्य॒ धाम॒ श्रव॑से॒ नामे॑न्द्रि॒यं ज्योति॒रका॑रि ह॒रितो॒ नाय॑से ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmai bhīmāya namasā sam adhvara uṣo na śubhra ā bharā panīyase | yasya dhāma śravase nāmendriyaṁ jyotir akāri harito nāyase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मै। भी॒माय॑। नम॑सा। सम्। अ॒ध्व॒रे। उषः॑। न। शु॒भ्रे॒। आ। भ॒र॒। पनी॑यसे। यस्य॑। धाम॑। श्रव॑से। नाम॑। इ॒न्द्रि॒यम्। ज्योतिः॑। अका॑रि। ह॒रितः॑। न। अय॑से ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:57» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:22» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् मनुष्य ! तू (यस्य) जिस सभाध्यक्ष का (धाम ) विद्यादि सुखों का धारण करनेवाला (श्रवसे) श्रवण वा अन्न के लिये है, जिसने (अयसे) विज्ञान के वास्ते (हरितः) दिशाओं के (न) समान (नाम) प्रसिद्ध (इन्द्रियम्) प्रशंसनीय बुद्धिमान् आदि वा चक्षु आदि (अकारि) किया है (अस्मै) इस (भीमाय) दुष्ट वा पापियों को भय देने (पनीयसे) यथायोग्य व्यवहार, स्तुति करने योग्य सभाध्यक्ष के लिये (शुभ्रे) शोभायमान शुद्धिकारक (अध्वरे) अहिंसनीय धर्मयुक्त यज्ञ (उषः) प्रातःकाल के (न) समान (नमसा) नमस्ते वाक्य के साथ (समाभर) अच्छे प्रकार धारण वा पोषण कर ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को समुचित है कि जैसे प्रातःकाल सब अन्धकार का निवारण और सबको प्रकाश से आनन्दित करता है, वैसे ही शत्रुओं को भय करनेवाले मनुष्य को गुणों की अधिकता से स्तुति, सत्कार वा संग्रामादि व्यवहारों में स्थापन करें। जैसे दिशा व्यवहार की जाननेहारी होती है, वैसे ही जो विद्या उत्तम शिक्षा, सेना, विनय, न्यायादि से सबको सुभूषित धन अन्न आदि से संयुक्त कर सुखी करे, उसी को सभा आदि अधिकारों में सब मनुष्यों को अधिकार देवें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्य ! त्वं यस्य धाम श्रवसेऽस्ति येनायसे हरितो न येन नामेन्द्रियं ज्योतिकारि क्रियतेऽस्मै भीमाय पनीयसे शुभ्र अध्वर उषो न प्रातःकाल इव नमसा समाभर ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) सभाध्यक्षाय (भीमाय) दुष्टानां भयंकराय (नमसा) सत्कारेण (सम्) सम्यगर्थे (अध्वरे) अहिंसनीये धर्मे यज्ञे (उषः) उषाः। अत्र सुपाम् इति विभक्तेर्लुक्। (न) इव (शुभ्रे) शोभमाने सुखे (आ) समन्तात् (भर) धर (पनीयसे) यथायोग्यं व्यवहारं कुर्वते स्तोतुमर्हाय (यस्य) उक्तार्थस्य (धाम) दधाति प्राप्नोति विद्यादिसुखं यस्मिंस्तत् (श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा (नाम) प्रख्यातिः (इन्द्रियम्) प्रशस्तं बुद्ध्यादिकं चक्षुरादिकं वा (ज्योतिः) न्यायविनयप्रचारकम् (अकारि) क्रियते (हरितः) दिशः (न) इव (अयसे) विज्ञानाय। हरित इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.६) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा प्रातःकालः सर्वान्धकारं निवार्य सर्वान् प्रकाश्याह्लादयति तथैव अन्यायविनाशको गुणाधिक्येन प्रशंसितः सत्कृत्य संग्रामादिव्यवहारे संस्थाप्यः। यथा दिशो व्यवहारं प्रज्ञापयन्ति तथैव विद्यासुशिक्षासेनाविनयन्यायानुष्ठानादिना सर्वान् भूषयित्वा धनान्नादिभिः संयोज्य सततं सुखयेत्। स एव सभाद्यधिकारे प्रधानः कर्त्तव्यः ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा प्रातःकाळ सर्व अंधकाराचे निवारण करून सर्वांना प्रकाशाने आनंदित करतो, तसेच शत्रूंना भयभीत करणाऱ्या माणसाला, गुणांचे आधिक्य असलेल्याला, स्तुती, सत्कार, संग्राम इत्यादी व्यवहारात स्थित करावे. जशी दिशा व्यवहार जाणवून देणारी असते. तसेच जो विद्या, उत्तम शिक्षण, सेना, विनय, न्याय इत्यादींनी सर्वांना सुभुषित करून धन, अन्न इत्यादीने संयुक्त करून सुखी करतो. त्यालाच सभा इत्यादीमध्ये सर्व माणसांनी अधिकार दिला पाहिजे. ॥ ३ ॥