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देवता: इन्द्र: ऋषि: सव्य आङ्गिरसः छन्द: जगती स्वर: निषादः

दि॒वश्चि॑दस्य वरि॒मा वि प॑प्रथ॒ इन्द्रं॒ न म॒ह्ना पृ॑थि॒वी च॒न प्रति॑। भी॒मस्तुवि॑ष्माञ्चर्ष॒णिभ्य॑ आत॒पः शिशी॑ते॒ वज्रं॒ तेज॑से॒ न वंस॑गः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

divaś cid asya varimā vi papratha indraṁ na mahnā pṛthivī cana prati | bhīmas tuviṣmāñ carṣaṇibhya ātapaḥ śiśīte vajraṁ tejase na vaṁsagaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दि॒वः। चि॒त्। अ॒स्य॒। व॒रि॒मा। वि। प॒प्र॒थ॒। इन्द्र॑म्। न। म॒ह्ना। पृ॒थि॒वी। च॒न। प्रति॑। भी॒मः। तुवि॑ष्मान्। च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑। आ॒ऽत॒पः। शिशी॑ते। वज्र॑म्। तेज॑से। न। वंस॑गः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:55» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पचपनवें सूक्त के पहिले मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अस्य) इस सविता के (दिवः) प्रकाश से (वरिमा) उत्तमता का भाव (मह्ना) बड़ाई से (विपप्रथे) विशेष करके प्रसिद्ध करता है (पृथिवी) जिसके बराबर भूमि (चन) भी तुल्य (न) नहीं और न (आतपः) सब प्रकार प्रतापयुक्त (वंसगः) बलवान् विभाग कर्त्ता के समान (पृथिवी) भूमि के (प्रति) मध्य में (तेजसे) प्रकाशार्थ (वज्रम्) किरणों को (शिशीते) अति शीतल उदक में प्रक्षेप करता है, वैसे जो दुष्टों के लिये भयंकर धर्मात्माओं के वास्ते सुखदाता हो के प्रजाओं का पालन करे, वह सब से सत्कार के योग्य है, अन्य नहीं ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यमण्डल सब लोकों से उत्कृष्ट गुणयुक्त और बड़ा है और जैसे बैल गोसमूहों में उत्तम और महाबलवान् होता है, वैसे ही उत्कृष्ट गुणयुक्त सब से बड़े मनुष्य को सब मनुष्यों को सभा आदि का पति करना चाहिये और वे सभाध्यक्षादि दुष्टों को भय देने और धार्मिकों के लिये आप भी धर्मात्मा हो के सुख देनेवाले सदा होवें ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रादौ सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाऽस्य सवितुर्दिवो वरिमा मह्ना विपप्रथे पृथिवी चन मह्ना तुल्या न भवति नातपो वंसगो न गोसमूहान् वंसगो न पृथिवीं प्रति तेजसे वज्रं शिशीते प्रक्षिपति तथा यो दुष्टेभ्यो भीमो धार्मिकेभ्यः प्रियो भूत्वा प्रजाः पालयेत् स चित्सर्वैः सत्कर्त्तव्यो नेतरः खलु ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दिवः) दिव्यगुणात् (चित्) एव (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (वरिमा) वरस्य भावः (वि) विविधार्थे (पप्रथे) प्रथते (इन्द्रम्) परमैश्वर्यस्य प्रापकम् (न) इव (मह्ना) महत्त्वेन। अत्र महधातोः बाहुलकाद् औणादिकः कनिन् प्रत्ययः। (पृथिवी) भूमिः (चन) अपि (प्रति) योगे (भीमः) दुष्टान् प्रति भयंकरः श्रेष्ठान् प्रति सुखकरः (तुविष्मान्) वृद्धिमान्। अत्र तुधातोः बाहुलकादौणादिक इसिः प्रत्ययः स च कित्। (चर्षणिभ्यः) दुष्टेभ्यः श्रेष्ठेभ्यो वा मनुष्येभ्यः (आतपः) समन्तात् प्रतापयुक्तः (शिशीते) उदके शिशीतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (वज्रम्) किरणान् (तेजसे) प्रकाशाय (न) इव (वंसगः) यो वंसं सम्भजनीयं गच्छति गमयति वा स वृषभः ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सवितृमण्डलं सर्वेभ्यो लोकेभ्य उत्कृष्टगुणं महद्वर्त्तते यथा वृषभो गोसमूहेषूत्तमो महाबलिष्ठो वर्त्तते तथैवोत्कृष्टगुणो महान् मनुष्यः सभाद्यधिपतिः कार्य्यः। स च सदैव स्वयं धर्मात्मा सन् दुष्टेभ्यो भयप्रदो धार्मिकेभ्यः सुखकारी च भवेत् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सूर्य, प्रजा व सभाध्यक्षाच्या कृत्याचे वर्णन केलेले आहे. यामुळे या सूक्तार्थाबरोबर पूर्वसूक्तार्थाची संगती जाणली पाहिजे ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्यमंडल सर्व गोलांमध्ये मोठे व उत्कृष्ट गुणयुक्त आहे व जसे बैल गोसमूहात उत्तम व महाबलवान असतो, तसे उत्कृष्ट गुणाच्या महान मनुष्याला सभापती केले पाहिजे. तो सभाध्यक्ष स्वतः धर्मात्मा असावा व दुष्टांना भयभीत करणारा आणि धार्मिकांना सुख देणारा असावा. ॥ १ ॥