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त्वं दि॒वो बृ॑ह॒तः सानु॑ कोप॒योऽव॒ त्मना॑ धृष॒ता शम्ब॑रं भिनत्। यन्मा॒यिनो॑ व्र॒न्दिनो॑ म॒न्दिना॑ धृ॒षच्छि॒तां गभ॑स्तिम॒शनिं॑ पृत॒न्यसि॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ divo bṛhataḥ sānu kopayo va tmanā dhṛṣatā śambaram bhinat | yan māyino vrandino mandinā dhṛṣac chitāṁ gabhastim aśanim pṛtanyasi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। दि॒वः। बृ॒ह॒तः। सानु॑। को॒प॒यः॒। अव॑। त्मना॑। धृ॒ष॒ता। शम्ब॑रम्। भि॒न॒त्। यत्। मा॒यिनः॑। व्र॒न्दिनः॑। म॒न्दिना॑। धृ॒षत्। शि॒ताम्। गभ॑स्तिम्। अ॒शनि॑म्। पृ॒त॒न्यसि॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:54» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभाध्यक्ष कैसा होवे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! जो (धृषत्) शत्रुओं का धर्षण करता (त्वम्) आप जैसे सूर्य्य (बृहतः) महासत्य शुभगुणयुक्त (दिवः) प्रकाश से (सानु) सेवने योग्य मेघ के शिखरों पर (शिताम्) अति तीक्ष्ण (अशनिम्) छेदन-भेदन करने से वज्रस्वरूप बिजुली और (गभस्तिम्) वज्ररूप किरणों का प्रहार कर (शम्बरम्) मेघ को (भिनत्) काट के भूमि में गिरा देता है, वैसे शस्त्र और अस्त्रों को चला के अपने (त्मना) आत्मा से दुष्ट मनुष्यों को (अवकोपयः) कोप कराते (व्रन्दिनः) निन्दित मनुष्यादि समूहोंवाले (मायिनः) कपटादि दोषयुक्त शत्रुओं को विदीर्ण करते और उनके निवारण के लिये (पृतन्यसि) अपने न्यायादि गुणों की प्रकाश करनेवाली विद्या वा वीर पुरुषों से युक्त सेना की इच्छा करते हो, सो आप राज्य के योग्य होते हो ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जगदीश्वर पापकर्म करनेवाले मनुष्यों के लिये अपने-अपने पाप के अनुसार दुःख के फलों को देकर यथायोग्य पीड़ा देता है, इसी प्रकार सभाध्यक्ष को चाहिये कि शस्त्रों और अस्त्रों की शिक्षा से धार्मिक शूरवीर पुरुषों की सेना को सिद्ध और दुष्ट कर्म करनेवाले मनुष्यों का निवारण करके धर्मयुक्त प्रजा का निरन्तर पालन करे ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे सभाध्यक्ष ! यः शत्रून् धृषत्त्वं यथा सूर्य्यो बृहतो दिवः सानु शितामशनिं गभस्तिं वज्राख्यं किरणं प्रहृत्य शम्बरं मेघं भिनत्तथा शस्त्रास्त्राणि प्रक्षिप्य त्मना दुष्टजनानवकोपयो व्रन्दिनो मायिनो विदृणासि तन्निवारणाय पृतन्यसि स त्वं राज्यमर्हसि ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) सभाध्यक्षः (दिवः) प्रकाशमयान्न्यायात् (बृहतः) महतः सत्यशुभगुणयुक्तात् (सानु) सनन्ति सम्भजन्ति येन कर्मणा तत्। अत्र दृसनिजनि० (उणा०१.३) इति ञुण् प्रत्ययः। (कोपयः) कोपयसि (अव) निरोधे (त्मना) आत्मना (धृषता) दृढकर्मकारिणा (शम्बरम्) शं सुखं वृणोति येन तं मेघमिव शत्रुम् (भिनत्) विदृणाति (यत्) यः (मायिनः) कपटादिदोषयुक्ताँश्छत्रून् (व्रन्दिनः) निन्दिता व्रन्दा मनुष्यादिसमूहा विद्यन्ते येषां तान् (मन्दिना) हर्षकारेण बलिना (धृषत्) शत्रुधर्षणं कुर्वन् (शिताम्) तीक्ष्णधाराम् (गभस्तिम्) रश्मिम् (अशनिम्) छेदनभेदनेन वज्रस्वरूपाम् (पृतन्यसि) आत्मनः पृतनां सेनामिच्छसि ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जगदीश्वरः पापकर्मकारिभ्यः स्वस्वपापानुसारेण दुःखफलानि दत्वा यथायोग्यं पीडयत्येवं सभाध्यक्षः शस्त्रास्त्रशिक्षया धार्मिकशूरवीरसेनां सम्पाद्य दुष्टकर्मकारिणो निवार्य्य धार्मिकीं प्रजां सततं पालयेत् ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे जगदीश्वर पापकर्म करणाऱ्या माणसांसाठी त्यांच्या पापानुसार दुःखाचे फळ देऊन त्यांना त्रस्त करतो त्याचप्रकारे सभाध्यक्षाने शस्त्र व अस्त्रांच्या शिक्षणाने युक्त धार्मिक शूरवीर पुरुषांच्या सेनेला सिद्ध करून दुष्ट कर्म करणाऱ्या माणसांचे निवारण करावे व धर्मयुक्त प्रजेचे निरंतर पालन करावे. ॥ ४ ॥