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देवता: इन्द्र: ऋषि: सव्य आङ्गिरसः छन्द: जगती स्वर: निषादः

अ॒भि त्यं मे॒षं पु॑रुहू॒तमृ॒ग्मिय॒मिन्द्रं॑ गी॒र्भिर्म॑दता॒ वस्वो॑ अर्ण॒वम्। यस्य॒ द्यावो॒ न वि॒चर॑न्ति॒ मानु॑षा भु॒जे मंहि॑ष्ठम॒भि विप्र॑मर्चत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi tyam meṣam puruhūtam ṛgmiyam indraṁ gīrbhir madatā vasvo arṇavam | yasya dyāvo na vicaranti mānuṣā bhuje maṁhiṣṭham abhi vipram arcata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि। त्यम्। मे॒षम्। पु॒रु॒ऽहू॒तम्। ऋ॒ग्मिय॑म्। इन्द्र॑म्। गीः॒ऽभिः। म॒द॒त॒। वस्वः॑। अ॒र्ण॒वम्। यस्य॑। द्यावः॑। न। वि॒ऽचर॑न्ति। मानु॑षा। भु॒जे। मंहि॑ष्ठम्। अ॒भि। विप्र॑म्। अ॒र्च॒त॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:51» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब इक्कावनवें सूक्त का आरम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में इन्द्र शब्दार्थ के समान विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम (अर्णवम्) समुद्र के तुल्य (त्यम्) उस (मेषम्) वृष्टिद्वारा सेचन करने हारे (पुरुहूतम्) बहुत विद्वानों से स्तुत (ऋग्मियम्) ऋचाओं से मान करने योग्य (मंहिष्ठम्) गुणों से बड़े (इन्द्रम्) समग्र ऐश्वर्य से युक्त शत्रुओं को विदारण करनेवाले राजा को (गीर्भिः) सत्यप्रशंसित वाणियों से (अभिमदत) हर्षित करो और सूर्य्य के (द्यावः) किरणों के (न) समान (यस्य) जिस को (भुजे) भोग के लिये (मानुषा) मनुष्यों के हित करनेवाले गुण (विचरन्ति) विचरते हैं, उस (वस्वः) धन के देनेवाले (विप्रम्) विद्वान् का (अभ्यर्चत) सदा सत्कार करो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को योग्य है कि जो बहुत गुणों के योग से सूर्य्य के सदृश विद्यायुक्त राजा हो, उसी का सत्कार सदा किया करें ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्रशब्दार्थवद्विदुषो राजादेर्गुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयमर्णवमिव त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियं मंहिष्ठमिन्द्रं परमैश्वर्यवन्तं राजानं गीर्भिरभिमदत सर्वतो हर्षयत सूर्यस्य द्यावः किरणान्नेव यस्य भुजे मानुषा विचरन्ति, तस्य वस्वो दातारं विप्रमभ्यर्चत ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभि) आभिमुख्ये (त्यम्) तम् (मेषम्) वृष्टिद्वारा सेक्तारम् (पुरुहूतम्) पुरुभिर्बहुभिर्विद्वद्भिः स्तुतम् (ऋग्मियम्) य ऋग्भिर्मीयते तम् (इन्द्रम्) सूर्यमिव शत्रूणां विदारयितारम् (गीर्भिः) वाग्भिः (मदत) हर्षत (वस्वः) वसोर्धनस्य (अर्णवम्) समुद्रवद्वर्त्तमानम् (यस्य) इन्द्रस्य (द्यावः) प्रकाशः (न) इव (विचरन्ति) (मानुषा) मनुष्याणां हितकारकाणि (भुजे) भोगाय (मंहिष्ठम्) अतिशयेन महान्तम् (अभि) सर्वतः (विप्रम्) मेधाविनम् (अर्चत) सत्कुरुत ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्बहुगुणयोगाद्यः सूर्यवद्विद्वान् राजा वर्त्ततां स एव सत्कर्त्तव्यः। नह्येतेन विना कस्यचित् सुखभोगो जायत इति ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सूर्य, अग्नी व विद्युत इत्यादी पदार्थांचे वर्णन, बल इत्यादीची प्राप्ती, अनेक अलंकार योजून विविध अर्थांचे वर्णन व सभाध्यक्ष आणि परमेश्वराच्या गुणांचे प्रतिपादन केलेले आहे. यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो सूर्याप्रमाणे अनेक गुणांनी युक्त व विद्येने युक्त राजा असेल तर त्याचाच माणसांनी सत्कार करावा. ॥ १ ॥