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आ त्वेता॒ निषी॑द॒तेन्द्र॑म॒भि प्र गा॑यत। सखा॑यः॒ स्तोम॑वाहसः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā tv etā ni ṣīdatendram abhi pra gāyata | sakhāyaḥ stomavāhasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। तु। आ। इ॒त॒। नि। सी॒द॒त॒। इन्द्र॑म्। अ॒भि। प्र। गा॒य॒त॒। सखा॑यः॒। स्तोम॑ऽवाहसः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:5» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पाँचवें सूक्त के प्रथम मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर और स्पर्शगुणवाले वायु का प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्तोमवाहसः) प्रशंसनीय गुणयुक्त वा प्रशंसा कराने और (सखायः) सब से मित्रभाव में वर्त्तनेवाले विद्वान् लोगो ! तुम और हम लोग सब मिलके परस्पर प्रीति के साथ मुक्ति और शिल्पविद्या को सिद्ध करने में (आनिषीदत) स्थित हों अर्थात् उसकी निरन्तर अच्छी प्रकार से यत्नपूर्वक साधना करने के लिये (इन्द्रम्) परमेश्वर वा बिजली से युक्त वायु को-इन्द्रेण वायुना० इस ऋग्वेद के प्रमाण से शिल्पविद्या और प्राणियों के जीवन हेतु से इन्द्र शब्द से स्पर्शगुणवाले वायु का भी ग्रहण किया है- (अभिप्रगायत) अर्थात् उसके गुणों का उपदेश करें और सुनें कि जिससे वह अच्छी रीति से सिद्ध की हुई विद्या सब को प्रकट होजावे, (तु) और उसी से तुम सब लोग सब सुखों को (एत) प्राप्त होओ॥१॥
भावार्थभाषाः - जब तक मनुष्य हठ, छल और अभिमान को छोड़कर सत्य प्रीति के साथ परस्पर मित्रता करके परोपकार करने के लिये तन मन और धन से यत्न नहीं करते, तब तक उनके सुखों और विद्या आदि उत्तम गुणों की उन्नति कभी नहीं हो सकती॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्रशब्देनेश्वरभौतिकावर्थावुपदिश्येते।

अन्वय:

हे स्तोमवाहसः सखायो विद्वांसः ! सर्वे यूयं मिलित्वा परस्परं प्रीत्या मोक्षशिल्पविद्यासम्पादनोद्योग आनिषीदत, तदर्थमिन्द्रं परमेश्वरं वायुं चाभिप्रगायत। एवं पुनः सर्वाणि सुखान्येत॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे (आ) अभ्यर्थे (इत) प्राप्नुत। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (निषीदत) शिल्पविद्यायां नितरां तिष्ठत (इन्द्रम्) परमेश्वरं विद्युदादियुक्तं वायुं वा। इन्द्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.४) विद्याजीवनप्रापकत्वादिन्द्रशब्देनात्र परमात्मा वायुश्च गृह्यते। विश्वेभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना। (ऋ०१.१४.१०) इन्द्रेण वायुनेति वायोरिन्द्रसंज्ञा। (अभिप्रगायत) आभिमुख्येन प्रकृष्टतया विद्यासिध्यर्थं तद्गुणानुपदिशत शृणुत च (सखायः) परस्परं सुहृदो भूत्वा (स्तोमवाहसः) स्तोमः स्तुतिसमूहो वाहः प्राप्तव्यः प्रापयितव्यो येषां ते॥१॥
भावार्थभाषाः - यावन्मनुष्या हठच्छलाभिमानं त्यक्त्वा सम्प्रीत्या परस्परोपकाराय मित्रवन्न प्रयतन्ते, तावन्नैवैतेषां कदाचिद्विद्यासुखोन्नतिर्भवतीति॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या पाचव्या सूक्तात विद्येद्वारे माणसांनी पुरुषार्थ कसा केला पाहिजे व सर्वांवर उपकार केला पाहिजे हा विषय प्रतिपादित करून चौथ्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर याची सांगड घातलेली आहे, हे जाणावे.

भावार्थभाषाः - जोपर्यंत माणूस हट्ट, छळ व अभिमान सोडून सत्याने प्रेमपूर्वक परस्पर मैत्री करून परोपकारासाठी तन, मन, धनाने प्रयत्न करीत नाही तोपर्यंत त्याच्या सुखाची व विद्या आणि उत्तम गुणांची वाढ करू शकत नाही. ॥ १ ॥