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ए॒षायु॑क्त परा॒वतः॒ सूर्य॑स्यो॒दय॑ना॒दधि॑ । श॒तं रथे॑भिः सु॒भगो॒षा इ॒यं वि या॑त्य॒भि मानु॑षान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣāyukta parāvataḥ sūryasyodayanād adhi | śataṁ rathebhiḥ subhagoṣā iyaṁ vi yāty abhi mānuṣān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒षा । अ॒यु॒क्त॒ । प॒रा॒वतः॒ । सूर्य॑स्य । उ॒त्अय॑नात् । अधि॑ । श॒तम् । रथे॑भिः । सु॒भगा॑ । उ॒षाः । इ॒यम् । वि । या॒ति॒ । अ॒भि । मानु॑षान्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:48» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उषा के समान स्त्री जन हों, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री जनो ! जैसे (एषा) यह (उषाः) प्रातःकाल (सूर्य्यस्य) सूर्यमंडल के (उदयनात्) उदय से (अधि) उपरान्त (अध्यभ्ययुक्त) ऊपर सन्मुख से सब में युक्त होती है जिस प्रकार (इयम्) यह (सुभगा) उत्तम ऐश्वर्य्ययुक्त (रथेभिः) रमणीय यानों से (शतम्) असंख्यात (मानुषान्) मनुष्यादिकों को (वियाति) विविध प्रकार प्राप्त होता है वैसे तुम भी युक्त होओ ॥७॥
भावार्थभाषाः - जैसे पतिव्रता स्त्रियां नियम से अपने पतियों की सेवा करती हैं। जैसे उषा से सब पदार्थों का दूर देश से संयोग होता है वैसे दूरस्थ कन्या पुत्रों का युवाऽवस्था में स्वयंवर विवाह करना चाहिये जिससे दूरदेश में रहनेवाले मनुष्यों से प्रीति बढ़े जैसे निकटस्थों का विवाह दुःखदायक होता है वैसे ही दूरस्थों का विवाह आनन्दप्रद होता है ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(एषा) वक्ष्यमाणा (अयुक्त) युंक्ते। अत्र लङर्थे #लुङ् बहुलं छन्दसि इति श्र्नमो लुक्। (परावतः) दूरदेशात् (सूर्य्यस्य) सवितृमंडलस्य (उदयनात्) उदयात् (अधि) उपरान्तसमये (शतम्) असंख्यातान् (रथेभिः) रमणीयैः किरणैः (सुभगा) शोभना भगा ऐश्वर्याणि यस्याः सा (उषाः) सुशोभा कान्तिः (इयम्) प्रत्यक्षा (वि) विविधार्थे (याति) प्राप्नोति (अभि) आभिमुख्ये (मानुषान्) मनुष्यादीन् ॥७॥#[लङ्०। सं०]

अन्वय:

पुनस्तद्वत् स्त्रियः स्युरित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रियो ! यूयं यथैषोषाः परावतः सूर्यस्योदयनादध्यभ्ययुक्त यथेयं सुभगा रथेभिः शतं मानुषान् वियाति तथैव युक्ता भवत ॥७॥
भावार्थभाषाः - यथा पतिव्रताः स्त्रियो नियमेन स्वपतीन् सेवन्ते यथोषसः पदार्थानां च दूरदेशात्संयोगो जायते तथैव दूरस्थैः कन्यावरैर्विवाहः कर्त्तव्यो यतो दूरदेशेऽपि प्रीतिर्वर्द्धेत तथा समीपस्थानां विवाहः क्लेशकारी भवति तथैव दूरस्थानां च सुखदायी जायते ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशा पतिव्रता स्त्रिया नियमपूर्वक आपल्या पतींची सेवा करतात. जसा उषेमुळे सर्व पदार्थांचा दूर स्थानांशी संयोग होतो. तसा दूरस्थ मुली व मुले यांचा युवावस्थेत स्वयंवर विवाह केला पाहिजे. ज्यामुळे दूर देशी राहणाऱ्या माणसांशी प्रेम वाढावे. जसा जवळ राहणाऱ्यांचा विवाह दुःखदायक असतो तसा दूर असणाऱ्यांचा विवाह आनंददायक असतो. ॥ ७ ॥