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वि या सृ॒जति॒ सम॑नं॒ व्य १॒॑ र्थिनः॑ प॒दं न वे॒त्योद॑ती । वयो॒ नकि॑ष्टे पप्ति॒वांस॑ आसते॒ व्यु॑ष्टौ वाजिनीवति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi yā sṛjati samanaṁ vy arthinaḥ padaṁ na vety odatī | vayo nakiṣ ṭe paptivāṁsa āsate vyuṣṭau vājinīvati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि । या । सृ॒जति॑ । सम॑नम् । वि । अ॒र्थिनः॑ । प॒दम् । न । वे॒ति॒ । ओद॑ती । वयः॒ । नकिः॑ । ते॒ । प॒प्ति॒वांसः॑ । आ॒स॒ते॒ विउ॑ष्टौ वा॒जि॒नी॒व॒ति॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:48» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसी हो, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे योगाभ्यास करनेहारी स्त्री ! आप जैसे (या) जो (ओदती) आर्द्रता को करती हुई (नकिः) शब्द को न करती (वाजिनीवती) बहुत क्रियाओं का निमित्त (उषाः) प्रातः समय (अर्थिनः) प्रशस्त अर्थ वाले का (पदं न) प्राप्ति के योग्य के समान (समनम्) सुन्दर संग्राम को जैसे (विवेति) व्याप्त होती है जिसकी (व्युष्टौ) दहन करनेवाली कान्ति में (पप्तिवांसः) पतनशील (वयः) पक्षी (आसते) स्थिर होते हैं वह वेला (ते) तेरे योगाभ्यास के लिये है इसको तू जान ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में उपमालंकार है। जैसे स्त्रियां व्यवहार से अपने पदार्थों को प्राप्त होती हैं वैसे उषा अपने प्रकाश से अधिकार को प्राप्त होती हैं जैसे वह दिन को उत्पन्न और सब प्राणियों को उठाकर अपने-२ व्यवहार में प्रवर्त्तमान कर रात्रि को निवृत्त करती और दिन के होने से दाह को भी उत्पन्न करती है वैसे ही सब स्त्री जनों को भी होना चाहिये ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(वि) विविधार्थे (या) उषर्वत्स्त्री (सृजति) (समनम्) समीचीनं संग्रामम्। समनमिति संग्रामना०। निघं० २।१७। (वि) विशेषार्थे (अर्थिनः) प्रशस्ता अर्था यस्य सन्ति (पदम्) प्रापणीयम् (न) इव (वेति) व्याप्नोति (ओदती) उन्दनं कुर्वन्ती (वयः) पक्षिणः (नकिः) या न शब्दयति सा (ते) तव (पप्तिवांसः) पतनशीला (आसते) (व्युष्टौ) विशेषेणोष्यन्ते दह्यन्ते यया कान्त्या तस्याम् (वाजिनीवती) बहवो वाजिन्यः क्रिया विद्यन्ते यस्यां सा ॥६॥

अन्वय:

पुनः सा किं कुर्यादित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे योगिनि स्त्रि ! भवती यथा यौदती नकिर्वाजिनीवत्युषा अर्थिनः पदं न समनं विवेति विसृजति यस्या व्युष्टौ पप्तिवांसो वय आसते सा वेला ते योगाभ्यासार्थाऽस्तीति मन्यस्व ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमाऽलंकारः यथा स्त्रियो व्यवहारेण स्वकीयान्पदार्थान्प्राप्नुवन्ति तथोषाः स्वप्रकाशेन स्वव्यवहाराऽधिकारं प्रोप्नोति यथा सा दिनमुत्पाद्य सर्वान्प्राणिनउत्थाप्य स्वस्वव्यवहारेषु वर्त्तयित्वा रात्रिं निवर्तयति दिनस्य प्रादुर्भावाद्दाहं जनयति तथैव स्त्रीभिर्भवितव्यम् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे स्त्रिया व्यवहाराने आपले पदार्थ प्राप्त करून घेतात. तशी उषा आपल्या प्रकाशाने अधिकार प्राप्त करते. जशी ती दिवस उत्पन्न करून सर्व प्राण्यांना उठवून आपापल्या व्यवहारात प्रवृत्त करून रात्री निवृत्त करते व दिवसा उष्णताही उत्पन्न करते. तसेच सर्व स्त्रियांनी असले पाहिजे. ॥ ६ ॥