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उषो॒ वाजं॒ हि वंस्व॒ यश्चि॒त्रो मानु॑षे॒ जने॑ । तेना व॑ह सु॒कृतो॑ अध्व॒राँ उप॒ ये त्वा॑ गृ॒णन्ति॒ वह्न॑यः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uṣo vājaṁ hi vaṁsva yaś citro mānuṣe jane | tenā vaha sukṛto adhvarām̐ upa ye tvā gṛṇanti vahnayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उषः॑ । वाज॑म् । हि । वंस्व॑ । यः । चि॒त्रः । मानु॑षे । जने॑ । तेन॑ । आ । व॒ह॒ । सु॒कृतः॑ । अ॒ध्व॒रान् । उप॑ । ये । त्वा॒ । गृ॒णन्ति॑ । वह्न॑यः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:48» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उषः) प्रभात वेला के तुल्य वर्त्तमान स्त्री ! तू (यः) जो (चित्रः) अद्भुत गुण कर्म स्वभावयुक्त (सुकृतः) उत्तम क्रम करनेवाला तेरा पति है (मानुषे) मनुष्य (जने) विद्याधर्मादि गुणों से प्रसिद्ध में (वाजम्) ज्ञान वा अन्न को (हि) निश्चय करके (वंस्व) सम्यक् प्रकार से सेवन कर (ये) जो (वह्नयः) प्राप्ति करनेवाले विद्वान् मनुष्य जिस कारण से (अध्वरान्) अध्वर यज्ञ वा अहिंसनीय विद्वानों की (उपगृणन्ति) अच्छे प्रकार स्तुति करते और तुझ को उपदेश करते हैं (तेन) उससे उनको (आवाह) सुखों को प्राप्त कराती रहे ॥११॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य जैसे सूर्य्य उषा को प्राप्त होके दिन को कर सबको सुख देता है वैसे अपनी स्त्रियों को भूषित करते हैं उनको स्त्री-जन भी भूषित करती हैं इस प्रकार परस्पर प्रीति उपकार से सदा सुखी रहें ॥११॥ अर्थात् प्रकटकर। सं०
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(उषः) प्रभातवद्बहुगुणयुक्ते (वाजम्) ज्ञानमन्नं वा (हि) किल (वंस्व) सम्भज (यः) विद्वान् (चित्रः) अद्भुत शुभगुणकर्मस्वभावः (मानुषे) मनुष्ये (जने) विद्याधर्मादिभिर्गुणैः प्रसिद्धे (तेन) उक्तेन (आ) समन्तात् (वह) प्राप्नुहि (सुकृतः) शोभनानि कृतानि कर्माणि येन सः (अध्वरान्) अहिंसनीयान् गृहाश्रमव्यवहारान् (उप) उपगमे (ये) वक्ष्यमाणाः (त्वा) त्वाम् (गृणन्ति) स्तुवन्ति (वह्नयः) वोढारो विद्वांसो जितेन्द्रियाः सुशीला मनुष्याः ॥११॥

अन्वय:

पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे उषर्वद्वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं यश्चित्रः सुकृतस्तव पतिर्वर्त्तते तस्मिन्मानुषे जने वाजं हि वंस्व ये वह्नयो येनाध्वरानुपगृणन्ति त्वा चोपदिशन्ति तेन तानावह समन्तात्प्राप्नुहि ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथा सूर्य उषसं प्राप्य दिनं कृत्वा सर्वान्प्राणिनः सुखयति तथा स्वाः स्त्रियो भूषयेयुस्तान् दाराअप्यलंकुर्युरेवं परस्परं सुप्रीत्युपकाराभ्यां सदा सुखिनः स्युः ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे उषेमुळे दिवस उगवतो व सर्वांना सुख मिळते तसे जी माणसे स्त्रियांना भूषित करतात त्यांना स्त्रियाही भूषित करतात. या प्रकारे परस्पर प्रीती व उपकार करून सदैव सुखी राहावे. ॥ ११ ॥