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श्रु॒धि श्रु॑त्कर्ण॒ वह्नि॑भिर्दे॒वैर॑ग्ने स॒याव॑भिः । आ सी॑दन्तु ब॒र्हिषि॑ मि॒त्रो अ॑र्य॒मा प्रा॑त॒र्यावा॑णो अध्व॒रम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śrudhi śrutkarṇa vahnibhir devair agne sayāvabhiḥ | ā sīdantu barhiṣi mitro aryamā prātaryāvāṇo adhvaram ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श्रु॒धि । श्रु॒त्क॒र्ण॒ । वह्नि॑भिः । दे॒वैः । अ॒ग्ने॒ । स॒याव॑भिः । आ । सी॒द॒न्तु॒ । ब॒र्हिषि॑ । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । प्रा॒तः॒यावा॑नः । अ॒ध्व॒रम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:44» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:30» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह विद्वान् कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (श्रुत्कर्ण) श्रवण करनेवाले (अग्ने) विद्याप्रकाशक विद्वन् ! आप प्रीति के साथ (सयावभिः) तुल्य जाननेवाले (वन्हिभिः) सत्याचार के भार धरनेहारे मनुष्य आदि (देवैः) विद्वान् और दिव्यगुणों के साथ (अस्माकम्) हम लोगों की वर्त्ताओं को (श्रुधि) सुनो, तुम और हम लोग (मित्रः) सबके हितकारी (अर्य्यमा) न्यायाधीश (प्रातर्य्यावाणः) प्रतिदिन पुरुषार्थ से युक्त (सर्वे) सब (अध्वरम्) अहिंसनीय पहिले कहे हुए यज्ञ को प्राप्त होकर (बर्हिषि) उत्तम व्यवहार में (आसीदन्तु) ज्ञान को प्राप्त हों वा स्थित हों ॥१३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि सब विद्याओं को श्रवण किये हुए धार्मिक मनुष्यों को राज्यव्यवहार में विशेष करके युक्त विद्वान् लोग शिक्षा से युक्त भृत्यों से सब कार्य्यों को सिद्ध और सर्वदा आलस्य को छोड़ निरन्तर पुरुषार्थ में यत्न करें। निदान इसके विना निश्चय है कि, व्यवहार वा परमार्थ कभी सिद्ध नहीं होते ॥१३॥ सं० भा० के अनुसार करें, और। सं०
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(श्रुधि) शृणु (श्रुत्कर्ण) यः शृणोति कर्णाभ्यां तत्संबुद्धौ (वन्हिभिः) वहनसमर्थैः (देवैः) विद्वद्भिः (अग्ने) विद्याप्रकाशयुक्त (सयावभिः) ये समानं यान्ति ते सयावानस्तैः (आ) आभिमुख्ये (सीदन्तु) (बर्हिषि) उत्तमे व्यवहारे स्थाने वा (मित्रः) सर्वहितकारी न्ययाधीशः (प्रातर्यावाणः) ये प्रातः प्रतिदिनं पुरुषार्थं यान्ति ते (अध्वरम्) अहिंसनीयं पूर्वोक्तयज्ञम् ॥१३॥

अन्वय:

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे श्रुत्कर्णाऽग्ने ! विद्वँस्त्वं संप्रीत्या सयावभिर्वन्हिभिर्देवैः सहास्माकं वार्त्ताः श्रुधि शृणु मित्रोऽर्य्यमा प्रातर्यावाणस्सर्वेऽध्वरमनुष्ठाय बर्हिष्यासीदन्तु ॥१३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्याः श्रुतसर्वविद्यान्धार्मिकान्मनुष्यान् राजकार्य्येषु नियुंजीरन् विद्वांसस्तु खलु सुशिक्षितैर्भृत्यैः सर्वाणि कार्याणि साधयेयुः सर्वदाऽऽलस्यं विहाय सततं पुरुषार्थे प्रयतेरन् नह्येवं विना खलु व्यवहारपरमार्थौ सिध्येते, इति ॥१३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व विद्यांचे श्रवण केलेल्या धार्मिक माणसांना राज्यव्यवहारात विशेष करून युक्त करावे. विद्वान लोकांनी शिक्षणाने युक्त सेवकांकडून सर्व कार्य सिद्ध करावे व सदैव आळस सोडून सतत पुरुषार्थ करावा. माणसांनी हे निश्चित जाणावे की याशिवाय व्यवहार किंवा परमार्थ कधी सिद्ध होऊ शकत नाही. ॥ १३ ॥