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देवता: पूषा ऋषि: कण्वो घौरः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

अति॑ नः स॒श्चतो॑ नय सु॒गा नः॑ सु॒पथा॑ कृणु । पूष॑न्नि॒ह क्रतुं॑ विदः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ati naḥ saścato naya sugā naḥ supathā kṛṇu | pūṣann iha kratuṁ vidaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अति॑ । नः । स॒श्चतः॑ । न॒य॒ । सु॒गा । नः॒ । सु॒पथा॑ । कृ॒णु॒ । पूष॑न् । इ॒ह । क्रतु॑म् । वि॒दः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:42» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह हम लोगों को किस प्रकार के करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पूषन्) सबको पुष्ट करनेवाले जगदीश्वर वा प्रजा का पोषण करने हारे सभाध्यक्ष विद्वान् ! आप (इह) इस संसार वा जन्म में (सश्चतः) विज्ञान युक्त विद्या धर्म को प्राप्त हुए (नः) हम लोगों को (सुगा) सुख पूर्वक जानेके योग्य (सुपथा) उत्तम विद्या धर्म युक्त विद्वानों के मार्ग से (अतिनय) अत्यन्त प्रयत्न से चलाइये और हम लोगों को उत्तम विद्यादि धर्म मार्ग से (क्रतुम्) उत्तम कर्म वा उत्तम प्रज्ञा से (विदः) जानने वाले कीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में श्लेषालंकार है। सब मनुष्यों को ईश्वर की प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिये कि हे जगदीश्वर ! आप कृपा करके अधर्म मार्ग से हम लोगों को अलग कर धर्म मार्ग में नित्य चलाइये तथा विद्वान् से पूछना वा उसका सेवन करना चाहिये कि हे विद्वान् ! आप हम लोगों को शुद्ध सरल वेद विद्या से सिद्ध किये हुए मार्ग में सदा चलाया कीजिये ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अति) अत्यन्तार्थे (नः) अस्मान् (सश्चतः) विज्ञानवतो विद्याधर्मप्राप्तान् (नय) प्रापय (सुगा) सुख गच्छन्ति प्राप्नुवति यस्मिन् तेन (नः) अस्मान् (सुपथा) विद्याधर्मयुक्तेनाप्तमार्गेण (कृणु) कुरु (पूषन्) सर्वपोषकेश्वर प्रजापोषक सभाध्यक्ष वा (इह) अस्मिन्समये संसारे वा (क्रतुम) श्रेष्ठं कर्म प्रज्ञां वा क्रतुरिति कर्म्मना०। निघं० १।२। प्रज्ञाना० निघं० ३।९। (विदः) प्राप्नुहि। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयोभ० इति गुणविकल्पो लेट्प्रयोगोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। सायणाचार्य्येणेदमडागमेन साधितम्। गुणप्राप्तिर्न बुद्धाऽतोस्यानभिज्ञता दृश्यते ॥७॥

अन्वय:

पुनः स कीदृशानस्मान्सम्पादयेदित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे पूषन् परमात्मन् सभाध्यक्ष ! वा त्वमिह सश्चतो नोऽस्मान् सुगा सुपथाऽतिनय नोऽस्मान् क्रतुं विदः ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालंकारः। सर्वैर्मनुष्यैरेवं जगदीश्वरः प्रार्थनीयः। हे जगदीश्वर ! भवान् कृपयाऽधर्ममार्गोदस्मान्निवर्त्य धर्ममार्गेण नित्यं गमयत्विति। विद्वानपि प्रष्टव्यः सेवनीयश्च भवान्नोऽस्माञ्छुद्धेन सरलेन वेदविद्यामार्गेण गमयत्विति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सर्व माणसांनी ईश्वराची प्रार्थना या प्रकारे केली पाहिजे की हे जगदीश्वरा ! तू कृपा करून अधर्म मार्गापासून आम्हाला दूर करून धर्ममार्गात नित्य वळव व विद्वानांना विचारले पाहिजे की हे विद्वाना ! तू आम्हाला शुद्ध सरळ वेदविद्येने सिद्ध केलेल्या मार्गानेच सदैव ने ॥ ७ ॥