वांछित मन्त्र चुनें
देवता: पूषा ऋषि: कण्वो घौरः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

अप॒ त्यं प॑रिप॒न्थिनं॑ मुषी॒वाणं॑ हुर॒श्चित॑म् । दू॒रमधि॑ स्रु॒तेर॑ज ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apa tyam paripanthinam muṣīvāṇaṁ huraścitam | dūram adhi sruter aja ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप॑ । त्यम् । प॒रि॒प॒न्थिन॑म् । मु॒षी॒वाण॑म् । हु॒रः॒चित॑म् । दू॒रम् । अधि॑ । स्रु॒तेः । अ॒ज॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:42» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इस मार्ग से किन-२ का निवारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् राजन् ! आप (त्यम्) उस (परिपंथिनम्) प्रतिकूल चलनेवाले डांकू (मुषीवाणम्) चोर कर्म से भित्ति को फोड़ कर दृष्टि का आच्छादन कर दूसरे के पदार्थों को हरने (हुरश्चितम्) उत्कोचक अर्थात् हाथ से दूसरे के पदार्थ को ग्रहण करनेवाले अनेक प्रकार से चोरों को (स्रुतेः) राजधर्म और प्रजामार्ग से (दूरम्) (अध्यपाज) उनपर दण्ड और शिक्षा कर दूर कीजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - चोर अनेक प्रकार के होते हैं, कोई डांकू कोई कपट से हरने, कोई मोहित करके दूसरे के पदार्थों को ग्रहण करने, कोई रात में सुरंग लगाकर ग्रहण, करने कोई उत्कोचक अर्थात् हाथ से छीन लेने, कोई नाना प्रकार के व्यवहारी दुकानों में बैठ छल से पदार्थों को हरने, कोई शुल्क अर्थात् रिशवत लेने, कोई भृत्य होकर स्वामी के पदार्थों को हरने, कोई छल कपट से ओरों के राज्य को स्वीकार करने, कोई धर्मोपदेश से मनुष्यों को भ्रमाकर गुरु बन शिष्यों के पदार्थों को हरने, कोई प्राड्विवाक अर्थात् वकील होकर मनुष्यों को विवाद में फंसाकर पदार्थों को हरलेने और कोई न्यायासन पर बैठ प्रजा से धन लेके अन्याय करनेवाले इत्यादि हैं, इन सबको चोर जानो, इनको सब उपायों से निकाल कर मनुष्यों को धर्म से राज्य का पालन करना चाहिये ॥३॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अप) दूरीकरणे (त्यम्) पूर्वोक्तम् (परिपन्थिनम्) प्रतिकूलं पन्थानं परित्यज्य स्तेयाय गुप्ते स्थितम्। अत्र छन्दसि परिपंथिपरिपरिणौपर्य्यवस्थातरि। #अ० ५।२।९९। अनेन पर्य्यवस्थाता विरोधी गृह्यते। (मुषीवाणम्) स्तेयकर्मणा भित्तिं भित्वा दृष्टिमावृत्य परपदार्थापहर्त्तारम्। मुषीवानिति स्तेनना०। निघं० ३।२४। (हुरश्चितम्) उत्कोचकं हस्तात्परपदार्थापहर्त्तारम् हुरश्चिदिति स्तेनना०। निघं० ३।२४। (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (अधि) उपरिभावे (स्रुतेः) स्रवन्ति गच्छन्ति यस्मिन्स स्रुतिमार्गस्तस्मात्। अत्र क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। अ० ३।३।१७४। अनेन स्रुधातोः संज्ञायां क्तिच्। (अज) प्रक्षिप ॥३॥ #[अ० ५।२।८९। सं०]

अन्वय:

पुनरेतस्मान्मार्गात्केके निवारणीयाइत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे पूषँस्त्व त्यं परिपंथिनं मुषीवाणं हुरश्चितमनेकविधं स्तेनं स्रुतेर्दूरमध्यपाज ॥३॥
भावार्थभाषाः - चोरा अनेकविधाः केचिद्दस्यवः केचित्कपटेनापहर्त्तारः। केचिन्मोहयित्वा परपदार्थादायिनः। केचिदुत्कोचकाः। केचिद्रात्रौ सुरंगं कृत्वा परपदार्थान् हरंति केचिन्नानापण्यवासिनो हट्टेषु छलेन परपदार्थान् हरंति केचिच्छुल्कग्राहिणः केचिद्भृत्या भूत्वा स्वामिनः पदार्थान् हरंति केचिच्छलकपटाभ्यां परराज्यानि स्वीकुर्वंति केचिद्धर्मोपदेशेन जनान् भ्रामयित्वा गुरवो भूत्वा शिष्यपदार्थान् हरंति केचित्प्राड्विवाकाः संतो जनान्विवादयित्वा पदार्थान् हरंति केचिन्न्यायासने स्थित्वा शुल्कादिकं स्वीकृत्य मित्रभावेन वाऽन्यायं कुर्वन्त्येतदादयस्सर्वे चोरा विज्ञेयाः। एतान् सर्वोपायैर्निवर्त्य मनुष्यैर्धर्मेण राज्यं शासनीयमिति ॥३॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - चोर अनेक प्रकारचे असतात. कुणी डाकू, कुणी कपटाने धन हरण करणारा, कुणी मोहित करून दुसऱ्याच्या पदार्थांना ग्रहण करणारा, कुणी रात्री सुरुंग लावून ग्रहण करणारा, कुणी नाना प्रकारच्या व्यवहारी दुकानात बसून छळाने पदार्थ घेणारा, कुणी उत्कोचक अर्थात हातातून हिसकावून घेणारा, कुणी लाच घेणारा, कुणी सेवक बनून मालकाचे पदार्थ चोरणारा, कुणी छळ-कपटाने इतरांचे राज्य घेणारा, कुणी ढोंगी धर्मोपदेशक बनून माणसाचा भ्रमित गुरू बनून शिष्यांच्या पदार्थांचे हरण करणारा, कुणी प्राड्विवाक अर्थात वकील बनून माणसांना विवादात फसवून पदार्थ घेणारा तर कुणी न्यायासनावर बसून प्रजेकडून धन घेऊन अन्याय करणारा इत्यादी असतात. या सर्वांना चोर समजावे व त्यांच्याबाबत सर्व उपाय योजून माणसांनी धर्माने राज्याचे पालन करावे. ॥ ३ ॥