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प्र नू॒नं ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्मन्त्रं॑ वदत्यु॒क्थ्य॑म् । यस्मि॒न्निन्द्रो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा दे॒वा ओकां॑सि चक्रिरे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra nūnam brahmaṇas patir mantraṁ vadaty ukthyam | yasminn indro varuṇo mitro aryamā devā okāṁsi cakrire ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । नू॒नम् । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । मन्त्र॑म् । व॒द॒ति॒ । उ॒क्थ्य॑म् । यस्मि॑न् । इन्द्रः॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । दे॒वाः । ओकां॑सि । च॒क्रि॒रे॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:40» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर कैसा है, उसका उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (ब्रह्मणस्पतिः) बड़े भारी जगत् और वेदों का पति स्वामी न्यायाधीश ईश्वर (नूनम्) निश्चय करके (उक्थ्यम्) कहने सुनने योग्य वेदवचनों में होनेवाले (मंत्रम्) वेदमन्त्र समूह का (प्रवदति) उपदेश करता है वा (यस्मिन्) जिस जगदीश्वर में (इन्द्रः) बिजुली (वरुणः) समुद्र चन्द्रतारे आदि लोकान्तर (मित्रः) प्राण (अर्यमा) वायु और (देवाः) पृथिवी आदिलोक और विद्वान् लोग (ओकांसि) स्थानों को (चक्रिरे) किये हुए हैं, उसी परमेश्वर का हम लोग सत्कार करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि जिस ईश्वर ने वेदों का उपदेश किया है, जो सब जगत् में व्याप्त होकर स्थित है जिसमें सब पृथिवी आदि लोक रहते और मुक्ति समय में विद्वान् लोग निवास करते हैं उसी परमेश्वर की उपासना करनी चाहिये इससे भिन्न किसी की नहीं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(प्र) (नूनम्) निश्चये (ब्रह्मणः) बृहतो जगतो वेदस्य वा (पतिः) न्यायाधीशः स्वामी (मन्त्रम्) वेदस्थमन्त्रसमूहम् (वदति) उपदिशति (उक्थ्यम्) वक्तुं श्रोतुं योग्येषु ऋग्वेदादिषु भवम् (यस्मिन्) जगदीश्वरे (इन्द्रः) विद्युत् (वरुणः) चन्द्रसमुद्रतारकादिसमूहः (मित्रः) प्राणः (अर्य्यमा) वायुः (देवाः) पृथिव्यादयोलोका विद्वांसो वा (ओकांसि) गृहाणि (चक्रिरे) कृतवन्तः सन्ति ॥५॥

अन्वय:

अथेश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - यो ब्रह्मणस्पतिरीश्वरो नूनमुक्थ्यं मन्त्रं प्रवदति यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्य्यमा देवश्चौकांसि चक्रिरे तमेव वयं यजामहे ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या येनेश्वरेण वेदा उपदिष्टा यः सर्वजगदभिव्याप्य स्थितोस्ति यस्मिन् सर्वे पृथिव्यादयो लोकास्तिष्ठन्ति मुक्तिसमये विद्वांसश्च निवसन्ति स एव सर्वैर्मनुष्यैरुपास्योस्ति न चास्माद्भिन्नोऽन्यः ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या ईश्वराने वेदांचा उपदेश केलेला आहे, जो सर्व जगात व्याप्त असून त्यात स्थित आहे. ज्याच्यात सर्व पृथ्वी इत्यादी गोल आहेत व मुक्तीच्या वेळी विद्वान लोक त्याच्यात निवास करतात. माणसांनी त्याच परमेश्वराची उपासना केली पाहिजे. त्यापेक्षा वेगळ्या कुणाची नाही. ॥ ५ ॥