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प्र यदि॒त्था प॑रा॒वतः॑ शो॒चिर्न मान॒मस्य॑थ । कस्य॒ क्रत्वा॑ मरुतः॒ कस्य॒ वर्प॑सा॒ कं या॑थ॒ कं ह॑ धूतयः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra yad itthā parāvataḥ śocir na mānam asyatha | kasya kratvā marutaḥ kasya varpasā kaṁ yātha kaṁ ha dhūtayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । यत् । इ॒त्था । प॒रा॒वतः॑ । शो॒चिः । न । मान॑म् । अस्य॑थ । कस्य॑ । क्रत्वा॑ । मरुतः॑ । कस्य॑ । वर्प॑सा । कम् । या॒थ॒ । कम् । ह॒ । धू॒त॒यः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:39» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उनतालिसवें सूक्त का आरंभ है। फिर वे विद्वान् लोग परस्पर किस-२ प्रकार संवाद करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) विद्वान् लोगो ! आप (यत्) जो (धूतयः) सबको कंपानेवाले वायु (शोचिर्न) जैसे सूर्य की ज्योति और वायु पृथिवी पर दूर से गिरते हैं इस प्रकार (परावतः) दूर से (कस्य) किसके (मानम्) परिमाण को (अस्यथ) छोड देते (इत्था) इसी हेतु से (कस्य) सुखस्वरूप परमात्मा के (क्रत्वा) कर्म वा ज्ञान और (वर्पसा) रूप के साथ (कम्) सुखदायक देश को (याथ) प्राप्त होते हो इन प्रश्नों के उत्तर दीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में उपमालङ्कार है। सुख की इच्छा करनेवाले विद्वान् पुरुषों को चाहिये कि जैसे सूर्य की किरणें दूर देश से भूमि को प्राप्त होकर पदार्थों को प्रकाश करती हैं वैसे ही अभिमान को दूर से त्याग के सब सुख देनेवाले परमात्मा और भाग्यशाली परमविद्वान्* के गुण, कर्म, स्वभाव और मार्ग को ठीक-२ जानके उन्हीमें रमण करें ये वायु कारण से आते कारणस्वरूप से स्थित और कारण में लीन भी हो जाते हैं ॥१॥ *संस्कृत भाष्य के अनुसार-परम विद्वान् से वायु के। सं०
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(प्र) प्रकृष्टार्थे (यत्) ये (इत्था) अस्माद्धेतोः (परावतः) दूरात् (शोचिः) सूर्यज्योतिः पृथिव्याम् (न) इव (मानम्) यत्परिमाणम् (अस्यथ) प्रक्षिपत (कस्य) सुखस्वरूपस्य परमात्मनः (क्रत्वा) क्रतुना कर्मणा ज्ञानेन वा। अत्र जसादिषु छन्दसि वा वचनम्# इति नादेशाभावः। (मरुतः) विद्वांसः (कस्य) सुखदातुर्भाग्यशालिनः (वर्पसा) रूपेण। वर्प इति रूपनामसु पठितम् निघं० ३।७। (कम्) सुखप्रदं देशम् (याथ) प्राप्नुत (कम्) सुखहेतुं पदार्थम् (ह) खलु (धूतयः) ये धून्वन्ति ते। क्तिच् क्तौ च संज्ञायाम्। ३।३।१७४। इति क्तिच् ॥१॥ #[अ० ७।३।१०९। सूत्रस्थ वार्तिकेन। सं०]

अन्वय:

पुनस्ते विद्वांसः कथं-२ संवदन्त इत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मरुतो यूयं यद्ये धूतयो वायव इव शोचिर्न परावतः कस्य मानमस्यथ। इत्था ह कस्य क्रत्वा वर्पसा च कं याथचेति समाधानानि ब्रूत ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। सुखमभीप्सुभिर्विद्वद्भिर्जनैर्यथा सूर्यस्य रश्मयो दूरदेशाद्भूमिं प्राप्य पदार्थान् प्रकाशयन्ति तथैव सर्वसुखदातुः परमात्मनो भाग्यशालिनः परभविदुषश्च सकाशाद्वायोगुणकर्मस्वभावान्याथातथ्यतो विज्ञाय तेष्वेव रमणीयं वायवः कारणमानं कारणस्वरूपेण यान्तीति विजानी ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात वायू व विद्वानांचे गुणवर्णन केल्यामुळे पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी सूर्याची किरणे दूरच्या स्थानाहून भूमीवर पडतात व पदार्थांना प्रकाशित करतात तसेच सुखाची इच्छा करणाऱ्या विद्वान पुरुषांनी अभिमान सोडून सर्व सुख देणाऱ्या परमेश्वराला व भाग्यवान परम विद्वानाच्या गुण, कर्म, स्वभावाला व मार्गाला ठीक ठीक जाणून त्यातच रमण करावे. वायू कारणामुळे निर्माण होऊन कारणस्वरूपात स्थित होऊन कारणातच लीन होतात. ॥ १ ॥