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मा वो॑ मृ॒गो न यव॑से जरि॒ता भू॒दजो॑ष्यः । प॒था य॒मस्य॑ गा॒दुप॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā vo mṛgo na yavase jaritā bhūd ajoṣyaḥ | pathā yamasya gād upa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा । वः॒ । मृ॒गः । न । यव॑से । ज॒रि॒ता । भू॒त् । अजो॑ष्यः । प॒था । य॒मस्य॑ । गा॒त् । उप॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:38» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:15» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उन वायुओं के संबंध से जीव को क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजा और प्रजा के जनों ! आप लोग (न) जैसे (मृगः) हिरन (यवसे) खाने योग्य घास खाने के निमित्त प्रवृत्त होता है वैसे (वः) तुम्हारा (जरिता) विद्याओं का दाता (अजोष्यः) असेवनीय अर्थात् पृथक् (मा भूत्) न होवे तथा (यमस्य) निग्रह करनेवाले वायु के (पथा) मार्ग से (मोप गात्) कभी अल्पायु होकर मृत्यु को प्राप्त न होवे, वैसा काम किया करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे हिरन युक्ति से निरन्तर घास खा-कर सुखी होते हैं वैसे प्राण वायु की विद्या को जाननेवाला मनुष्य युक्ति के साथ अहार-विहार कर वायु के ¤मार्ग से अर्थात् मृत्यु को प्राप्त नहीं होता और संपूर्ण अवस्था को भोग के सुख से शरीर को छोड़ता है ¶अर्थात् सदा विद्या पढ़ें पढ़ावें कभी विद्यार्थी और आचार्य वियुक्त न हों और प्रमाद करके अल्पायु में न मर जायें ॥५॥ ¤सं० भा० के अनुसार मार्ग को।सं० ¶इसमें आगे का भाग संस्कृत भाष्य में नहीं है। सं०
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(मा) निषेधार्थे (वः) एतेषां मरुताम् (मृगः) हरिणः (न) इव (यवसे) भक्षणीये घासे (जरिता) स्तोता जनः (भूत्) भवेत्। अत्र बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेपि# इत्यडभावः*। (अजोष्यः) असेवनीयः (पथा) श्वासप्रश्वासरूपेण मार्गेण (यमस्य) निग्रहीतुर्वायोः (गात्) गच्छेत्। अत्र +लडर्थे लुङडभावश्च। (उप) सामीप्ये ॥५॥ #[अ० ६।४।७५।] *[लिङ् र्थे लुङच।सं०।] +[लिङ् र्थे लुङ्। सं०]

अन्वय:

तत्सम्बंधेन जीवस्य किं भवतीत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजप्रजाजना यूयं यवसे मृगो नेव वो जरिताऽजोष्यो मा भूत् यमस्य पथा च मोप गादेवं विधत्त ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा हरिणा निरन्तरं घासं भक्षयित्वा सुखिनो भवन्ति तथा प्राणविद्याविन्मनुष्यो युक्त्याऽऽहारविहारं कृत्वा यमस्य मार्गं मृत्युं नोपगच्छेत् पूर्णमायुर्भुक्त्वा शरीरं सुखेन त्यजेत् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे मृग युक्तीने निरंतर तृण खाऊन सुखी होतात तसे प्राणवायूची विद्या जाणणारा माणूस युक्तीने आहारविहार करून यमाचा मार्ग अर्थात मृत्यूला प्राप्त होत नाही व संपूर्ण अवस्था भोगून शरीर सोडून देतो. त्यासाठी सदैव विद्येचे अध्ययन-अध्यापन करावे. विद्यार्थी व आचार्य यांचा परस्पर वियोग होता कामा नये. प्रमाद करून अल्पायुषी होता कामा नये. ॥ ५ ॥