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याति॑ दे॒वः प्र॒वता॒ यात्यु॒द्वता॒ याति॑ शु॒भ्राभ्यां॑ यज॒तो हरि॑भ्याम् । आ दे॒वो या॑ति सवि॒ता प॑रा॒वतोऽप॒ विश्वा॑ दुरि॒ता बाध॑मानः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yāti devaḥ pravatā yāty udvatā yāti śubhrābhyāṁ yajato haribhyām | ā devo yāti savitā parāvato pa viśvā duritā bādhamānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याति॑ । दे॒वः । प्र॒वता॑ । याति॑ । उ॒त्वता॑ । याति॑ । शु॒भ्राभ्या॑म् । य॒ज॒तः । हरि॑भ्याम् । आ । दे॒वः । या॒ति॒ । स॒वि॒ता । प॒रा॒वतः॑ । अप॑ । विश्वा॑ । दुःइ॒ता । बाध॑मानः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:35» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब वायु और सूर्य्य के दृष्टान्त के साथ अगले मन्त्र में शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (विश्वा) सब (दुरिता) दुष्ट दुःखों को (अप) (बाधमानः) दूर करता हुआ (यजतः) संगम करने योग्य (देवः) श्रवण आदि ज्ञान का प्रकाशक वायु (प्रवता) नीचे मार्ग से (याति) जाता आता और (उद्वता) ऊर्ध्व मार्ग से (याति) जाता आता है और जैसे सब दुःख देनेवाले अंधकारादिकों को दूर करता हुआ (यजतः) संगत होने योग्य (सविता) प्रकाशक सूर्यलोक (शुभ्राभ्याम्) शुद्ध (हरिभ्याम्) कृष्ण वा शुक्लपक्षों से (परावतः) दुरस्थ पदार्थों को अपनी किरणों से प्राप्त होकर पृथिव्यादि लोकों को (आयाति) सब प्रकार प्राप्त होता है वैसे शूरवीरादि लोग सेना आदि सामग्री सहित ऊंचे-नीचे मार्ग में जा-आके शत्रुओं को जीतकर प्रजा की रक्षा निरन्तर किया करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वरकी उत्पन्न की हुई सृष्टि में वायु नीचे ऊपर वा समगति से चलता हुआ नीचे के पदार्थों को ऊपर और ऊपर के पदार्थों को नीचे करता है और जैसे दिन रात वा आकर्षण धारण गुणवाले अपने किरण समूह से युक्त सूर्यलोक अन्धकारादिकों के दूर करने से दुःखों का विनाश कर सुख और सुखों का विनाश कर दुःखों को प्रगट करता है वैसे ही सभापति आदि को भी अनुष्ठान करना चाहिये ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(याति) गच्छति (देवः) द्योतको वायुः (प्रवता) अधोमार्गेण। अत्र प्रपूर्वकात्संभजनार्थाद्वनधातोः क्विप् (याति) प्राप्नोति (उद्वता) ऊर्द्ध्वमार्गेण (याति) गच्छति (शुभ्राभ्याम्) शुद्धाभ्याम् (यजतः) संगंतुं योग्यः (हरिभ्याम्) कृष्णशुक्लपक्षाभ्याम् (आ) अभ्यर्थे (देवः) प्रकाशकः (याति) प्राप्नोति (सविता) सूर्यलोकः (परावतः) दूरमार्गान्। परावत इति दूरनामसु पठितम्। निघं० ३।२६। (अप) दूरार्थे (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (दुरिता) दुष्टानि दुःखानि। अत्रोभयत्र शेश्छंदसि इति लोपः। (बाधमानः) दुरीकुर्वन् ॥३॥

अन्वय:

अथ वायुसूर्य्यदृष्टान्तेन शूरवीरगुणा उपदिश्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजपुरुषा भवन्तो यथा विश्वानि दुरितान्यपबाधमानो यजतो देवो वायुः प्रवता मार्गेण यात्युद्वता मार्गेण यात्यायाति च यथा च विश्वा दुरिता सर्वाणि दुःख प्रदान्यन्धकारादीनि बाधमानो यजतः सविता देवः सूर्यलोकः शुभ्राभ्यां हरिभ्यां हरणसाधनाभ्यामहोरात्राभ्यां कृष्णशुक्लपक्षाभ्यां परावतो दूरस्थान् पदार्थान् स्वकिरणैः प्राप्य पृथिव्यादीन् लोकान् याति प्राप्नोति तथा युद्धाय शूरवीरा गमनागमनाभ्यां प्रजाः सततं सुखयन्तु ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ईश्वरोत्पादितायां सृष्टौ वायुरधऊर्ध्वसमगत्या गच्छन्नधस्थानुपर्युपरिस्थानानयति यथायमहोरात्रादिभ्यां हरणशीलाभ्यां स्वकिरणयुक्ताभ्यां युक्तः सविता देवोंऽधकाराद्यपवारणेन दुःखानि विनाश्य सुखानि प्रकटय्य कदाचित् सुखानि निवार्य्य दुःखानि प्रकटयति तथा सभापत्यादिभिरपि सेनादिभिः सह गत्वागत्य व शत्रून् जित्वा प्रजापालनमनुष्ठेयम् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ईश्वराने उत्पन्न केलेल्या सृष्टीत वायू खाली-वर किंवा समगतीने चालतो. खालील पदार्थांना वर व वरील पदार्थांना खाली नेतो व जसे दिवस रात्र किंवा आकर्षण, धारण गुण असलेल्या किरणसमूहाने युक्त असलेला सूर्यलोक अंधःकार इत्यादींना दूर करून दुःखांचा नाश करून सुख व सुखाचा विनाश करून दुःख प्रकट करतो तसे सभापती इत्यादींनीही सेनेसह कूच करून शत्रूंना जिंकून प्रजोपालनाचे अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥ ३ ॥