वांछित मन्त्र चुनें

न्य१॒॑घ्न्यस्य॑ मू॒र्धनि॑ च॒क्रं रथ॑स्य येमथुः। परि॒ द्याम॒न्यदी॑यते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ny aghnyasya mūrdhani cakraṁ rathasya yemathuḥ | pari dyām anyad īyate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि। अ॒घ्न्यस्य॑। मू॒र्धनि॑। च॒क्रम्। रथ॑स्य। ये॒म॒थुः॒। परि॑। द्याम्। अ॒न्यत्। ई॒य॒ते॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:30» मन्त्र:19 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:31» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:19


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अश्विनौ विद्यायुक्त शिल्पि लोगो ! तुम दोनों (अघ्न्यस्य) जो कि विनाश करने योग्य नहीं है, उस (रथस्य) विमान आदि यान के (मूर्धनि) उत्तम अङ्ग अग्रभाग में जो एक और (अन्यत्) दूसरा नीचे की ओर कलायन्त्र बनाओ तो वे दो चक्र समुद्र वा (द्याम्) आकाश पर भी (नियेमथुः) देश-देशान्तर में जाने के वास्ते बहुत अच्छे हों, इन दोनों चक्रों से जुड़ा हुआ रथ जहाँ चाहो वहाँ (ईयते) पहुँचानेवाला होता है॥१९॥
भावार्थभाषाः - शिल्पी विद्वानों को योग्य है कि जो शीघ्र जाने आने के लिये रथ बनाना चाहें तो उसके आगे एक-एक कलायन्त्रयुक्त चक्र तथा सब कलाओं के घूमने के लिये दूसरा चक्र नीचे भाग में रच के उसमें यन्त्र के साथ जल और अग्नि आदि पदार्थों का प्रयोग करें। इस प्रकार रचा हुए यान भारसहित शिल्पी विद्वान् लोगों को भूमि, समुद्र और अन्तरिक्ष मार्ग से सुखपूर्वक देशान्तर को प्राप्त कराता है॥१९॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे अश्विनौ ! विद्याव्याप्तौ युवां यद्येकमघ्न्यस्य रथस्य मूर्द्धन्यपरं द्वितीयं च चक्रमधो रचयेतां तर्ह्येते समुद्रमाकाशं वा नियेमथुर्नियच्छथ एताभ्यां द्वाभ्यां युक्तं यानं यथेष्टे मार्गे ईयते प्रापयति॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) क्रियायोगे (अघ्न्यस्य) हन्तुं विनाशयितुमनर्हस्य यानस्य (मूर्धनि) उत्तमाङ्गेऽग्रभागे (चक्रम्) एकं यन्त्रकलासमूहम् (रथस्य) विमानादियानस्य (येमथुः) देशान्तरे यच्छथः। अत्र लडर्थे लिट्। (परि) सर्वतः (द्याम्) दिवमुपर्य्याकाशम् (अन्यत्) द्वितीयं चक्रम् (ईयते) गमयति॥१९॥
भावार्थभाषाः - शिल्पिभिः शीघ्रगमनार्थं यद्यद्यानं चिकीर्ष्यते तस्य तस्याग्रभाग एकं कलायन्त्रचक्रं सर्वकलाभ्रमणार्थं द्वितीयमपरभागे च रचनीयं तद्रचने जलाग्न्यादि प्रयोज्यैतेन यानेन ससम्भाराः शिल्पिनो भूमिसमुद्रान्तरिक्षमार्गेण सुखेन गन्तुं शक्नुवन्तीति निश्चयः॥१९॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - शिल्पी विद्वान शीघ्र गमनागमन करण्यासाठी रथ बनवू इच्छितील तर समोर एक एक कलायंत्रयुक्त चक्र व सर्व कलांना फिरविण्यासाठी दुसरे चक्र खालच्या बाजूला लावावे. त्यात यंत्राबरोबर जल व अग्नी इत्यादी पदार्थांचा प्रयोग करावा. याप्रकारे तयार केलेले यान भारसहित असून, शिल्पी विद्वानांना भूमी, समुद्र व अंतरिक्ष मार्गाने सुखपूर्वक देशांतरी पोहोचविते. ॥ १९ ॥