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स॒मा॒नयो॑जनो॒ हि वां॒ रथो॑ दस्रा॒वम॑र्त्यः। स॒मु॒द्रे अ॑श्वि॒नेय॑ते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samānayojano hi vāṁ ratho dasrāv amartyaḥ | samudre aśvineyate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒मा॒नऽयो॑जनः। हि। वा॒म्। रथः॑। द॒स्रौ॒। अम॑र्त्यः। स॒मु॒द्रे। अ॒श्वि॒ना॒। ईय॑ते॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:30» मन्त्र:18 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:31» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दस्रौ) मार्ग चलने की पीड़ा को हरनेवाले (अश्विना) उक्त अश्वि के समान शिल्पकारी विद्वानो ! (वाम्) तुम्हारा जो सिद्ध किया हुआ (समानयोजनः) जिसमें तुल्य गुण से अश्व लगाये हों (अमर्त्यः) जिसके खींचने में मनुष्य आदि प्राणी न लगे हों, वह (रथः) नाव आदि रथसमूह (समुद्रे) जल से पूर्ण सागर वा अन्तरिक्ष में (ईयते) (अश्वावत्या) वेग आदि गुणयुक्त (शवीरया) देशान्तर को प्राप्त करानेवाली गति के साथ समुद्र के पार और वार को प्राप्त करानेवाला होता है, उसको सिद्ध कीजिये॥१८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (अश्वावत्या) (शवीरया) इन दो पदों की अनुवृत्ति है। मनुष्यों की जो अग्नि, वायु और जलयुक्त कलायन्त्रों से सिद्ध की हुई नाव हैं, वे निस्सन्देह समुद्र के अन्त को जल्दी पहुँचाती हैं, ऐसी-ऐसी नावों के विना अभीष्ट समय में चाहे हुए एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना नहीं हो सकता है॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे दस्रौ मार्गगमनपीडोपक्षेतारावश्विना अश्विनौ विद्वांसौ ! यो वां युवयोर्हि खलु समानयोजनोऽमर्त्यो रथः समुद्र ईयते यस्य वेगेनाश्वावत्या शवीरया गत्या समुद्रस्य पारावारौ गन्तुं युवां शक्नुतस्तं निष्पादयतम्॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समानयोजनः) समानं तुल्यं योजनं संयोगकरणं यस्मिन् सः (हि) खलु (वाम्) युवयोः (रथः) नौकादियानम् (दस्रौ) गमनकर्त्तारौ (अमर्त्यः) अविद्यमाना आकर्षका मनुष्यादयः प्राणिनो यस्मिन् सः (समुद्रे) जलेन सम्पूर्णे समुद्रेऽन्तरिक्षे वा (अश्विना) अश्विनौ क्रियाकौशलव्यापिनौ। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (ईयते) गच्छति॥१८॥
भावार्थभाषाः - अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (अश्वावत्या) (शवीरया) इति द्वयोः पदयोरनुवृत्तिः। मनुष्यैर्यानि महान्त्यग्निवाष्पजलकलायन्त्रैः सम्यक् चालितानि नौकायानानि तानि निर्विघ्नतया समुद्रान्तं शीघ्रं गमयन्ति। नैवेदृशैर्विना नियतेन कालेनाभीष्टं स्थानान्तरं गन्तुं शक्यत इति॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्राने (अश्ववत्या) (शवीरया) या दोन पदांची अनुवृत्ती होते. माणसांनी अग्नी व वायू आणि जलयुक्त कलायंत्रांनी सिद्ध केलेली नाव निस्संदेह समुद्राच्या पलीकडे पोहोचविते. अशा नावाशिवाय इच्छित अशा एका स्थानापासून दुसऱ्या स्थानी योग्यवेळी जाणे-येणे होऊ शकत नाही. ॥ १८ ॥