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आ घ॒ त्वावा॒न्त्मना॒प्तः स्तो॒तृभ्यो॑ धृष्णविया॒नः। ऋ॒णोरक्षं॒ न च॒क्र्योः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā gha tvāvān tmanāptaḥ stotṛbhyo dhṛṣṇav iyānaḥ | ṛṇor akṣaṁ na cakryoḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। घ॒। त्वाऽवा॑न्। त्मना॑। आ॒प्तः। स्तो॒तृऽभ्यः॑। धृ॒ष्णो॒ इति॑। इ॒या॒नः। ऋ॒णोः। अक्ष॑म्। न। च॒क्र्योः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:30» मन्त्र:14 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (धृष्णो) अति धृष्ट (त्मना) अपनी कुशलता से (आप्तः) सर्वविद्यायुक्त सत्य के उपदेश करने और (इयानः) राज्य को जाननेवाले राजन् ! (त्वावान्) आप से (घ) आप ही हो जो आप (चक्र्योः) रथ के पहियों की (अक्षम्) धुरी के (न) समान (स्तोतृभ्यः) स्तुति करने वालों को (आऋणोः) प्राप्त होते हो॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार और प्रतीपालङ्कार हैं। जैसे पहियों की धुरी रथ को धारण करनेवाली घूमती भी अपने ही में ठहरी सी रहती है और रथ को देशान्तर में प्राप्त करनेवाली होती है, वैसे ही आप राज्य को व्याप्त होकर यथायोग्य नियम में रखते हो॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे धृष्णो अति प्रगल्भ सभाध्यक्ष ! त्मनाप्त इयानस्त्वावान् त्वं घ त्वमेवासि यस्त्वं चक्र्योरक्षं न इव स्तोतृभ्यः स्तावकेभ्य आऋणोः स्तावकान् आप्नोसीति यावत्॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) अभ्यर्थे (घ) एव (त्वावान्) त्वादृशः। अत्र वतुप्प्रकरणे युष्मदस्मद्भ्यां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०५.२.३९) इति सादृश्यार्थे वतुप्। (त्मना) आत्मना। मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। (अष्टा०६.४.१४१) इत्याकारलोपः। (आप्तः) सर्वविद्यादिसद्गुणव्याप्तः सत्योपदेष्टा (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यो जनेभ्यः। गत्यर्थकर्म्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यौ चेष्टायामनध्वनि। (अष्टा०२.३.१२) इति चतुर्थी (इयानः) सर्वाभीष्टाभिज्ञाता। अत्रेङ्गतावित्यस्मात्। छन्दसि लिट्। (अष्टा०३.२.१०५) इति लिट्। लिटः कानज्वा। (अष्टा०३.२.१०६) इति कानच्। (ऋणोः) प्राप्नोति। अत्र लडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसि इत्यडभावश्च। (अक्षम्) धूः (न) इव (चक्र्योः) रथाङ्गयोः। अत्र कृञ् धातोः आदृगमहनजनः० (अष्टा०३.२.१७१) इति किप्रत्ययः॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः प्रतीपालङ्कारश्च। यथा चक्र्योर्धू रथधारिका सती परिभ्रमणेनापि स्वस्मिन्नैव स्थापनी रथस्य देशान्तरप्रापिका भवति, तथैव सकलगुणकर्मस्वभावाभिव्याप्त- स्त्वमेतत्सर्वन्नियच्छसीति॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार व प्रतीपालंकार आहेत. जशी चाकाची आरी एके ठिकाणी स्थित असल्यासारखी वाटते ती रथाला निरनिराळ्या स्थानी घेऊन जाते तसे तू (राजा) राज्य यथायोग्य नियमाने चालवतोस. ॥ १४ ॥