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अश्वि॑ना॒ पुरु॑दंससा॒ नरा॒ शवी॑रया धि॒या। धिष्ण्या॒ वन॑तं॒ गिरः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aśvinā purudaṁsasā narā śavīrayā dhiyā | dhiṣṇyā vanataṁ giraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्वि॑ना। पुरु॑ऽदंससा। नरा॑। शवी॑रया। धि॒या। धिष्ण्या॑। वन॑तम्। गिरः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:3» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे अश्वी किस प्रकार के हैं, सो उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग (पुरुदंससा) जिनसे शिल्पविद्या के लिये अनेक कर्म सिद्ध होते हैं (धिष्ण्या) जो कि सवारियों में वेगादिकों की तीव्रता के उत्पन्न करने में प्रबल (नरा) उस विद्या के फल को देनेवाले और (शवीरया) वेग देनेवाली (धिया) क्रिया से कारीगरी में युक्त करने योग्य अग्नि और जल हैं, वे (गिरः) शिल्पविद्यागुणों की बतानेवाली वाणियों को (वनतम्) सेवन करनेवाले हैं, इसलिये इनसे अच्छी प्रकार उपकार लेते रहो॥२॥
भावार्थभाषाः - यहाँ भी अग्नि और जल के गुणों को प्रत्यक्ष दिखाने के लिये मध्यम पुरुष का प्रयोग है। इससे सब कारीगरों को चाहिये कि तीव्र वेग देनेवाली कारीगरी और अपने पुरुषार्थ से शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये उक्त अश्वियों की अच्छी प्रकार से योजना करें। जो शिल्पविद्या को सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, उन पुरुषों को चाहिये कि विद्या और हस्तक्रिया से उक्त अश्वियों को प्रसिद्ध कर के उन से उपयोग लेवें। सायणाचार्य्य आदि तथा विलसन आदि साहबों ने मध्यम पुरुष के विषय में निरुक्तकार के कहे हुए विशेष अभिप्राय को न जान कर इस मन्त्र के अर्थ का वर्णन अन्यथा किया है॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं यौ पुरुदंससौ नरौ धिष्ण्यावश्विनौ शवीरया धिया गिरो वनतं वाणीसेविनौ स्तः, तौ बुद्ध्या सेवयत॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) अग्निजले (पुरुदंससा) पुरूणि बहुनि दंसांसि शिल्पविद्यार्थानि कर्माणि याभ्यां तौ। दंस इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (नरा) शिल्पविद्याफलप्रापकौ (धिष्ण्या) यौ यानेषु वेगादीनां तीव्रतासंपादिनौ (शवीरया) वेगवत्या। शव गतावित्यस्माद्धातोरीरन्प्रत्यये टापि च शवीरेति सिद्धम्। (धिया) क्रियया प्रज्ञया वा। धीरिति कर्मप्रज्ञयोर्नामसु वायविन्द्रश्चेत्यत्रोक्तम्। (वनतम्) यौ सम्यग्वाणीसेविनौ स्तः। अत्र व्यत्ययः। (गिरः) वाचः॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्राप्यग्निजलयोर्गुणानां प्रत्यक्षकरणाय मध्यमपुरुषप्रयोगत्वात् सर्वैः शिल्पिभिस्तौ तीव्रवेगवत्या मेधया पुरुषार्थेन च शिल्पविद्यासिद्धये सम्यक् सेवनीयौ स्तः। ये शिल्पविद्यासिद्धिं चिकीर्षन्ति तैस्तद्विद्या हस्तक्रियाभ्यां सम्यक् प्रसिद्धीकृत्योक्ताभ्यामश्विभ्यामुपयोगः कर्त्तव्य इति। सायणाचार्य्यादिभिर्मध्यमपुरुषस्य निरुक्तोक्तं विशिष्टनियमाभिप्रायमविदित्वाऽस्य मन्त्रस्यार्थोऽन्यथा वर्णितः। तथैव यूरोपवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चेति॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - येथेही अग्नी व जलाच्या गुणांना प्रत्यक्ष दर्शविण्यासाठी मध्यम पुरुषाचा प्रयोग केलेला आहे. त्यासाठी सर्व कारागिरांनी अत्यंत कौशल्याने व आपल्या पुरुषार्थाने शिल्पविद्येची सिद्धी होण्यासाठी वरील अश्वींची (अग्नी व जलाची) चांगल्या प्रकारे योजना करावी. जे शिल्पविद्या सिद्ध करण्याची इच्छा बाळगतात त्या पुरुषांनी विद्या व हस्तक्रिया यांनी वरील ‘अश्विं’ना प्रसिद्ध करावे व त्यांचा उपयोग करून घ्यावा ॥
टिप्पणी: सायणाचार्य व विल्सन इत्यादी साहेबांनी मध्यम पुरुषाविषयीचा निरुक्तकाराने सांगितलेला विशेष अभिप्राय न जाणता या मंत्राचा वेगळाच अर्थ लावलेला आहे. ॥ २ ॥