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सर्वं॑ परिक्रो॒शं ज॑हि ज॒म्भया॑ कृकदा॒श्व॑म्। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sarvam parikrośaṁ jahi jambhayā kṛkadāśvam | ā tū na indra śaṁsaya goṣv aśveṣu śubhriṣu sahasreṣu tuvīmagha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सर्व॑म्। प॒रि॒ऽक्रो॒शम्। ज॒हि॒। ज॒म्भय॑। कृ॒क॒दा॒श्व॑म्। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वी॒ऽम॒घ॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:29» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:7 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह क्या करे इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (तुविमघ) अनन्त बलरूप धनयुक्त (इन्द्र) सब शत्रुओं के विनाश करनेवाले जगदीश्वर आप जो (नः) हमारे (सहस्रेषु) अनेक (शुभ्रिषु) शुद्ध कर्मयुक्त व्यवहार वा (गोषु) पृथिवी के राज्य आदि व्यवहार तथा (अश्वेषु) घोड़े आदि सेना के अङ्गों में विनाश का करानेवाला व्यवहार हो, उस (परिक्रोशम्) सब प्रकार से रुलानेवाले व्यवहार को (जहि) विनष्ट कीजिये तथा जो (नः) हमारा शत्रु हो (कृकदाश्वम्) उस दुःख देनेवाले को भी (जम्भय) विनाश को प्राप्त कीजिये। इस रीति से (तु) फिर (नः) हम लोगों को (आशंसय) शत्रुओं से पृथक् कर सुखयुक्त कीजिये॥७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को इस प्रकार जगदीश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये कि हे परमात्मन् ! आप हम लोगों में जो दुष्ट व्यवहार अर्थात् खोटे चलन तथा जो हमारे शत्रु हैं, उनको दूर कर हम लोगों के लिये सकल ऐश्वर्य दीजिये॥७॥पिछले सूक्त में पदार्थ विद्या और उसके साधन कहे हैं, उनके उपादान अत्यन्त प्रसिद्ध कराने हारे संसार के पदार्थ हैं, जो कि परमेश्वर ने उत्पन्न किये हैं, इस सूक्त में उन पदार्थों से उपकार ले सकनेवाली सभाध्यक्ष सहित सभा होती है, उसके वर्णन करने से पूर्वोक्त अट्ठाईसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस उनतीसवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे तुवीमघेन्द्रसेनाध्यक्ष ! त्वं यो नोऽस्माकं सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु सर्वं परिक्रोशं जहि कृकदाश्वं च जम्भयानेन तु पुनर्नोऽस्मानाशंसय॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सर्वम्) समस्तम् (परिक्रोशम्) परितः सर्वतः क्रोशन्ति रुदन्ति यस्मिन् दुःखसमूहे तम् (जहि) हिन्धि (जम्भय) विनाशय अदर्शनं प्रापय। अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (कृकदाश्वम्) कृकं हिसनं दाशति ददाति तं शत्रुम्। अत्र दाशृ धातोर्बाहुकादौणादिक उण् प्रत्ययस्ततोऽमि पूर्व इत्यत्र वा छन्दसि इत्यनुवृत्तौ पूर्वसवर्णविकल्पेन यणादेशः। (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्माकमस्मान् वा (इन्द्र) सर्वशत्रुनिवारकसेनाध्यक्ष (शंसय) सुखिनः सम्पादय (गोषु) पृथिव्या राज्यव्यवहारेषु (अश्वेषु) हस्त्यश्वसेनाङ्गेषु (शुभ्रिषु) शुद्धेषु धर्म्येषु व्यवहारेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) अधिकं मघं वलाख्यं धनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्रापि पूर्ववद्दीर्घः॥७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरित्थं जगदीश्वरं प्रार्थनीयः। हे परमात्मन् ! भवान् येऽस्मासु दृष्टव्यवहाराश्शत्रवः सन्ति तान् सर्वान् निवार्य्यास्मभ्यं सकलैश्वर्य्यं देहीति॥७॥पूर्वेण पदार्थविद्यासाधनान्युक्तानि तदुपादानं जगत्पदार्थाः सन्ति ते जगदीश्वरेणोत्पादिता इत्युक्त्वात्र तेषां सकाशादुपकारग्रहणसमर्थाः स सभाध्यक्षः सभ्या जना भवन्तीत्युक्तत्वादष्टाविंश- सूक्तोक्तार्थेन सहास्यैकोनत्रिंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी या प्रकारे जगदीश्वराची प्रार्थना केली पाहिजे, की हे परमेश्वरा! जे दुष्ट व्यवहार करणारे अर्थात खोटे आचरण करणारे व आमचे शत्रू आहेत, त्यांना दूर करून आम्हाला संपूर्ण ऐश्वर्य दे. ॥ ७ ॥
टिप्पणी: या सूक्तात त्या पदार्थांचा उपयोग करून घेऊ शकणारी सभाध्यक्षासहित सभा असते याचे वर्णन असल्यामुळे पूर्वोक्त अठ्ठाविसाव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर या एकोणतिसाव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥